पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/८१

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बूतं छड़ों के सगे रहने के समय उस राह से अाहर निकला भी. मुश्किल था, । अलावे इसके, वह ताक इतना संग भी था कि इनसान बड़ी मुश्किल से उसके बाहर अपना सिर निकाल सकता था। | गरज़ यह कि मैं ताकि के पास इस गरज़ से बैठा रहा कि तज़िी हवा के सबब मुझपर बेहोशी का असर हर्गिज़ न होगा और ज्योंही बह चालाक औरत यहां आई कि चट मैं रस्सी के सहारे नीचे कूदकर उसे गिरनार कर लूंगा। लेकिन बड़ा मज़ा हुआ ! उस दिन सुबह से बैठे बैठे शाम होगई, पर खाना लेकर कोई न आया और मारे भूख के मैं बैचैन होगया । आखिर झस्त्रमार कर मैं नीचे उतरी और पलंग पर बैठगया मुझे पलंम पर आकर बैठे देर न आई थी कि वह बेहोश करने वाली मस्ती से भरी हुई खुशबू कोठरी में फैलने लगी और बात की बात में मैं बेहोश हो गया। । थोड़ी देर बाद जब मैं होश में आया तो क्या देखता हूँ कि कोठरी में रोशनी होरही है और तिपाई के ऊपर खाना रक्ला अद है । मैं चट उठकर रकाबी उठा लाया और ज्योंही उसका हेफना स्तोला, मेरी निगाह एकं खत पर पड़ी । मैंने चटपटे उसे उठोकर पढ़ा तो उसमें चंद सतरें इस मज़मून की लिखी हुई थीं,

    • हुज़रत !
    • आपकी कार्रवाइयों से मैं अनजान नहीं हैं। भला यह कैसो

चैवकफी है कि आज दिनभर तुम भखे रहे! अगर उस वक्त मैं भ पर बेहोशी का असर डालती कि जिस वक्त तुम ताक के पास बैठे हुए थे, तो उसका क्या नतीजा होता ! यही कि तुम बेहोश हो कर वहां से लुढ़क जाते और नीचे गिरकर अपने हाथ पैर तुड़ा बैठते । तुम्हारा यह खयाल, कि ताक के पास रहने पर ताजी हुवी साँस लेने को मिलेगी, जिससे बेहोशी का असर मुझपर न होगा, बिल्कुल , गलत है। यहाँ तक कि तुम घंटों साँस रोक कर भी इस बेहोशी की , इवा के असर से अपने तई नहीं बचा सकते । पस, इन्दे ऐसी में सिर पैर की कार्रवाई करके न तो खुद तकलीफ़ उठाना और न मुझे परेशान करना, क्योंकि इसका नतीजा कुछ भी न निकलेगी। इस