पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८९
शाहमहलसरा

पन्द्रहवां बयान ।

एक रोज़ बड़े तड़के जब मेरी नींद खुली, मैंने अपनी चारपाई के बग़ल में एक तिपाई पर अपनी उस मददगार नाज़नी को बैठी हुई पाया, जो मुझे औरत बनाकर बादशाही ख़ास दूरबार में लेगई। थी उसे देखते ही मैं जल्दी से उठ बैठा और मिज़ाजपुर्सी के बाद बोला,--

आज अलसुबह यह चाँद का टुकड़ा किधर से निकल पड़ा?”

उसने मुस्कुराहट के साथ कहा,--क्या इसकी तुम्हें मुतलक ख़बर नहीं है? खैर, तुम्हारी यह चाँद आज तुम्हें फिर छैलछबीली बनाकर ईद मनाएगा !"

मैने कहा,--माज़ अल्लाह ! क्या आज तुम फिर वैसीही दिल्लगी मेरे साथ फररोगी १ वाह बोली हाँ, आज फिर तुम्हें शाही मजलिस को कैफियत दिखताऊ भी वहां आज कठपुतलियां का नाच होंगे और बड़ा लुफ़्त नज़र अएगा।”

मैने कहा,--लेकिन मैं इसे लुत्फ़ से बाज़ आया, जिस में हर लहज़ः जान का खतरा बना रहता है।"

यह सुनकर वह जरा मुस्कुराई और कहने लगी,--भई,तुम तो निरे बोदे हो!आई तुम को मेरी दिलेरी देखकर भी शर्म नहीं आती ! अजी हज़रत अगर जाने जाने की भी बारी आएगी तो पहिले मैं ही पूछी जाऊगी क्योंकि शाही महलपरी की कुल मोरछल-वालियौ की अफ़सर मैं ही हूँ ।”

मैं--"लेकिन तुम्हें जान बूझकर ऐसी बला में अपने तई फसाने से क्या फ़ायदा है ?"

वह,--यहीं कि तुम्हें औरत बनाऊं और ज़िन्दगी का लुत्फ़ हासिल करू'।"

मैं,--"अगर तुम्हें इसी से दिलचस्पी होती है तो मुझे यहीं औरत बनाकर अपने सीने से लगा लो !”