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लखनऊ की कब्र

वह--"लाहोलवलाकुवत ! अजी, मियां ! सीने से तो तुमको दिलाराम लगाएगी, भला मेरी ऐसी किस्मत कहा कि तुम्हें गले से लगाऊँ ?”

मैं,--"ख़ैर तो अब तुम्हारा इरादा क्या है ?"

वह,-–“यही कि आज मैं उसी तरह तुम्हें फिर शाही दरवार में ले चलूंगी।तुम सब बातों से तैयार रहना, मैं शाम होते ही यहाँ, आऊँगी ?”

मैं,--ख़ैर, जैसी तुम्हारी मर्जी । लेकिन यह तो बतलाओं कि बादशाह के दरबार में उस दिन पांच चार अंगरेजों के अलावे और कोई न था, इसका क्या सबब है ?"

वह कहने लगी,--"बादशाह नसीरुद्दीन हैदर अँगरेज़ों की बड़ी कुदर करता है, यही सबब है कि उसके खास जलसे में सिवाय अंगरेजों के कोई भी हिन्दुस्तानी शरीक नहीं हो सकता ! इसी गरज से मैं तुम्हें वहाँ ले आया चाहती हूं कि भला जब तक तुम शाह महलस के अन्दर हो, ये लुत्फ भी तो उठालो ।”

मैंने जल्दी से कहा,--आख़िर, मैं कब तक इस बला में फंसा रहूंगा?"

वह बोली,--थोड़े दिन आर सब्र करा।"

मैंने जब देखा कि यह जवाब उसने कुछ मुंह बनाकर दिया तो मैंने वह ज़िक्र छोड़कर दूसरी छोड़ दी; कहा,--क्या, वे अंगरेज़, जिनकी इतनी कद्र बादशाह करता है, वहुत आला दरजे के हैं !"

वह बोली,--वे सब महज़ मामूली शख़्स हैं। यहां तक कि जो यहां के रेज़ीडेन्ट, यानी बड़े साहब हैं, और जिनके हाथ में अवध की पाँच लाख रिआया की किस्मत की बागडोर है, वे विलायत के एक महज़ मामुली और अदने अंगरेज़ हैं !"

मैंने कहा--हां मैंने उन्हें देखा है, उनके बांए गाल पर किसी किस़्म की चोट का निशान है।"