पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/१०२

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  • ल्खनऊ का फा धड़ी थी । लेकिन वह आलमारी बंद थी, जिले में हजार कोशिश करने पर भी न खोल सका। उसमें बहुत कुछ देखभाल करने परभी कोई खटका या ताला मुझो नज़र न आया और न यही मेरी समझ में आया कि यह फिल हिकमत से बन्द की गई है !

__ आखिर, जब मैं उसे खोल न सका तो उस कमरे के हरएक दरवाजे की जांच करने लगा, लेकिन वे सब बंद थे और लिवा उस कोठरी के, जिसमें जाकर में हाथ मह धोता और गुसल करता था और कोई दरवाज़ा खुला न था। उस कोठरी में भी, जिसमें कि मामूली कामों से फुर्सत पाता था तीन तरफ संगींन पत्थरों की दीवारें बनी हुई थी लेकिन फिर करों कर उसकी सफाई होती थी और कौन किधर से आकर पानी भर जाया करता था, इसका मतलब मेरी समझ में न आया। इतना तो मैंने जरूर समझा था कि इस कोठरी में आने को राह इसी पत्थर की संगीन दीवार से ही ताल्लुक रखती होगी, लेकिन मैंने बहुतेरा सिर खपाया, लेकिन मेरी समझ में कुछ न आया । मैं किस्से कहानियों में तिलस्म की बहुतेरी बातें पढ़चुका था इसलिये मुझे शाहीमहलसरा की इमारतों के तरीके देख कर कुछ जियादह ताज्जबन हुआ, लेकिन इतना जरूर हुआ कि क्या इस किस्म की इमारतों के वनबाने का सिर्फ यही मतलब है कि माइलों की बेगमें मनमाना जुल्म करें और मुझ सरीखे बदवस इस बेरहमी के साथ सताए जाया करें!!! . भाखिर, मैं देर तक कमरे में दहला फिया, फिर पलंग पर शाकर लेटा, बाद उटकर मसनद पर बैठा और किताब देखने लगा और यौहीं सारा दिन बाद होगया। शाम हुई, मैंने चिराग रोशन किया और वहशियों की तरह कमरे में देर तक रदलता रहा फिर मैंने दिल ही दिल में यों सोचा कि अब पलड़ पर पड़ पर सोने का घहोना करना चाहिये और जागते रहकर यह देखना पारियकिरात