पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/१६

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लखनऊ को कत्र * थोड़ी ही देर हुई थी कि कोई खटके की आवाज़ मेरे कानों में सुनाई दी, जिसे सुनकर में चौंक उठा और चाहता था कि कुछ बोलू, लेकिन यह सोचकर कि, यही दिल्लुगीवाज बानो मुकले कुछ मजाक करने आई होगी, में लामोश रहा। फिर तो मुझे ऐसा मालूमपड़ा.गोया कई आदमी मेरी कोही चल फिर रहे हैं,यह जानकर मैं कुछ डरा,किन मैं उसहालत,जध कि घर में अधेरा था, किसी जानियको भागने की राह मथी में अकेला था और मेरे पास कोई हथियार मौजद सथा,मैं स्म्या कर सकताथा! लाचार, किस्मत पर भरोसा रखकर मैं चुपचाप अपनो चारपाई पर पड़ा रहो और अजमयी शख्सोंका हर्कत पर कान लगाए रहा। कुछ देर बाद कुछ फरशाहट सुनाई दो, जैसे आपस में कोई बात चीत करता हो ! लेकिन उस जुमले को या उसके मतलव को मैं मतलक न समझा । फिरतो धीरे धीरे कुछ बात चीत साफ साफ सुनाई देने लगी, जिसका मतलब यह था एक,--"देखो, वह मूजी यहीं चारपाई पर सोरहा होगा, बस चट उसे बेहोशी की दवा सुधाकर यहां से उठा लेचलो। दुसरा,-"लेकिन कही लेंचलं , यह तो तुमने, बी! बसलाया ही नहीं ? एक- इसमें बतलाने की क्या जरूरत है ? इसे महललरा के बाहर ले जाकर किसी निरालो जगह में मारकर गाद देना।" दूसरा,-"विहतर ऐसाही करूंगा; लेकिन इनाम मिल जामा चाहिये। ___एक,-"आह, देर न करो और जल्द इस मए को यहां से उठी लें जाओ, बरन फसाद बरपा होगा। दूसरा--"लेकिन इनाम ?" एक,--"लाहौलदलावत ! अजी,मेरी बातों पर तुरको यकीन नहीं है ! तुम्हारा इनाम,जे कि तुमसे कहा गयाहै,रसी जाहपर, उसी