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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/१५

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अपने हाथ की सफ़ाई दिखलाने लगा। बाद खाना खाने के मैने हुक्केपर चिलम रखकर धुवां उड़ाना शुरु किया और पलंग पर लेटेट सोचने लगाकि अबमैं अपने तई खुशकिस्मत समझं या बदकिम्मत ! इस मर्तबः नो मैं देखता हूं कि मेरी तबामः का इन्तेहा होगया है ! लेकिन इसका सबब क्या है ! क्योंकि एक तरफ यह खातिर और दूसरी जानिब यह कैद ! यह बात क्या है थाखुदा,अगर मैं इस कैदसे छूटकरभी ऐसेही आराम के साथ अपनी जिन्दगी बसर करलकं तो फिर में यही समझगा कि बादशाह में और मझमें कोई फर्क नहीं है। लेकिन जबतक आजादी मुझसे दूरहै और बर्बादीके दाम में ग़र्क होरहा हूं,तब तक ये सब ऐशो आराम मुझे जहर ले लगते हैं ! अफ़सोस, वेवसी को जंजीर ने मझो इस कदर जकड़ रक्खा है कि जिसे काट कर फिर आज़ादी को गले लगाना मेरी ताकत से बाहर है। योही देर तक तरह तरह के खयालों में इसकदरमैं उलझा रहा कि कव मुझे नींद आगई, यह मैं नोजान सका, लेकिन जब मेरी नोंद खुली तो कोउरीमें शमादान रौशनथा और खाना भी मौजद था। मैं शामादान लेकर हम्माम में गया, लेकिन वहां जाने पर शमादान का लेजाना मुझे फ़जूल मालुम हुआ, क्योंकि वहां पर भी कई चिराग रौशन थे, जोकि आज नई बात थी; चं कि आज के पेश्तर रात के वक्त हम्माम में जब कभी मुझे जाने की जरूरत पड़तो, मैं रौशनी अपने साथ ले जाया करता था। खैर, मैं ज़रूरी कामो से फर्सत पाकर हम्माम से वापिस आय' और एक किताब उठाकर पढ़ने लगा। उस वक्त तक मुझे भूख नहीं लगी थी,इसलिये खाने की तरफ मैंने देखा भी नहीं । दिनको मैं बखधी सोचका था,इसलिये ज़ियादह रात सकमझे नींद न आई और में किताब की सैर में लगा रहा । रात आधीले ज़ियादहबीत चुकीथी,जब मैंने किताबको सिरहा रन और दियेको शुस कर के सोने की ठहराई । मुझे चारपाई परलेटे