पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/३३

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एके शाहीमहलसरा* १४ मैंने छवी र कहा, लेकिन तुम अब नाहक देर कर रहा होकिसकाल मुझ पर जाहिर नहीं करतीं! " चयाबफेश.--" सुनो, कहती हूँ। तुम्हारे यहाँ पर मौजूद रहने सेसीदा हाल को असमानी ने बादशाह सलामत पर ज़ाहिर कर दिया है, जिसके सबब वह तुम्हारी मददगार नाज़नी गिरफ्तार करली गई है और तुर भी हस्ताम वाले रास्ते को बन्द करके यहां पर कैद कर लिए गए हो । यह सुनकर मैं घबरा गया और जल्दी से चारपाईसे उछल कर उस नकाबपोश की तरफ़ बढ़ा। मुझे अपने सामने बढ़ते देखकर वह और पोछे हटगई और बोली- यूसुफ़ पागलपन को दूर रक्खो और मेरे नज़दीक न आओ। घबराओ मत, अगर तुम चाहो तो मैं सही सलामत तुम्हें शाहीमहलसरा के बाहर कर दंगी!" मैंने जल्दी से कहा,--" यह क्या तुम सच कहती हो ! नकाबपोश ने कहा--- यह तुम्हें अख्तियार है कि मेरी बातों को सच समझो, या झूठ ! मैं तो सिर्फ अपना फ़र्ज़ अदा करने आई थी, सो कर चकी, अब तुम जैसा मुनासिब समझो बैसा करो। अगर तुम यहां से अपनी जान बचाकर भागो चाहते हो तो मेरे हमराह हेरलेो, मैं तुम्हें सही सलामत यहां ले निकाल दूंगी, और जो तुम्हें अपनी बदकिस्मती के सवब यहीं रहने में बिहतरी जान पड़े तो शोक से रहो, मैं अब जाती हूं" यह कह कर उसेने बड़ी लापरवाई के साथ अंगड़ाई ली और मैंने बड़ो आजिजी के साथ कहा,--- हज़रत तुमको न मैं झूठी कहता हूं और न मैं अब यहां रहनाही चाहता हूँ। बड़ी मिहरवानी तुम्हारी मुझ पर होगी, अगर तुम मुझ पख्त को सही सलामत इस कफ़ल से छुटकारा दिलाओगी, लेकिन सिर्फ एक बात मैं तुम से यह पूछा चाहता कि क्या तुम उस नाज़नी के कहने से मुझे यहां से निकालने आई हो !