पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/३५

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  • शाहीमहलसरा मैंने कहा,--"वह यही कि क्या तुम मेरी प्यारी दिलाराम के बारे में कुछ जानती हो?"

नकाबपोश,--"क्या, वही दिलाराम, जो नज़ीर के साथ घर से निकल गई है १० यह एक ऐसी बात थी कि जिसे सुनकर मेरे सारे तन में आग लगगई और मेंने कहा, “ओफ ? तू मेरी दिलाराम की शान में ऐसे कलमे कहती है ? नकाबपोश,--(हिकारत की हंसी हंस कर ) जनाव! मु से कुसूर हुआ, मुआफ कीजिए अगर मैं यह जानता होतो कि इस खबर को सुन कर आपके ज़िगर पर चोट पहुंचेगी, तो मैं यह हाल हर्गिज़ आप पर न जाहिर करती । " ___मैंने कहा, लेकिन खैर, यह तो बतलाओ कि दिन के वक्त मैं शाहीमहलसरा के बाहर क्यों कर जा सकूँगा ? " नकाबपोश,-" इसके वास्ते तुम कोई फ़िक्र न करो । शायद तुम्हें,जिस पोशीदे रास्तेसे आसमानी महलसराके अन्दर लाई थी, उसका हाल मालूम होगा! मैंने कहा,- नहीं, उसका कुछ भी हाल मुझे मालुम नहीं है, क्यों कि उस वक्त मेरी आंखों पर पट्टी बंधो हुई थी। नकाबपोश,-“नहीं, मेरी यह गरज नहीं है। " मैंने कहा,-" ती क्या है ? " नकाबपोश.--" यही कि जिस रास्ते से तुम आए हो, उसी रास्ते से बाहर कर दिए जाओगे । क्यों कि वह रास्ता इतना पोशीदा और उजाड़ जगह में है कि वहां पर दिन को भी कोई इन्सान नज़र नहीं आता।" लेकिन, नाजरीन ! उस मनहूम रास्ते का नाम सुनते ही जिधर से कि मुझे चुडैल आसमानी ले आई थी, मेरे रोंगटे खड़े होगये और दिल ही दिल में मैंने यह खयाल किया कि कहीं यह औरत ओलमानी