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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/३६

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  • लख ऊनी कर की तरफ़दार तो नहीं है जो मुझे धोखा देकर यहां से निकाल ; उसके पजे में फंसाया चाहता है ! लेकिन ऐसा भी क्यों कर मान ! क्यों कि अगर मेरी मददगार नाज़नी किसी बला में न फंसी होती तो अब तक वह ज़रूर मेरी खबर लेती और हम्मास को रास्तो हर्गिज़ बन्द न करती, जिसके बन्द हो जाने से मुझे हर दरज़ो की तकलीफ हो रही है ! खैर मैं इन्हीं बातों को सोच रहा था कि उस नकाबपोश ने फिर कहा;

“तुम क्या सोच रहे है। । " मैंने कहा कुछ भी नहीं।" नकाबपोश;-“ नहीं ! खैर न सही ! लेकिन अब तुम्हारा इरादा क्या है !" नाज़रीन ! इसपर मुझे एक बात सूझी और मैंने उस नकाबपोश औरत को सचाई की तराजू पर तौलना चाहा। मैंने कहा,“मैं तो यही विहतर समझता हूं कि जो खेल किस्मत दिखलाए; उसे यहीं बैठे २ देखू और यहां से कहीं न ज ! मेरी इस बात को सुन कर वह ज़रा चिहुंक उठी और कुछ चकपको कर बोली,-" यह क्यों ? इस में तुमने क्या चिहतरी समझी है ? ____ मैंने कहा- बिहतरी चाहे कुछ हो; या न हो. लेकिन मैं तब तक इस जगह से हाज़ न टलूगा. जब तक वह खुद आकर मझले यहां से जाने के वास्ते न कहेगी." यह सुन और कुछ झिझक करें उसने कहा,- यह तुम्हारी सरासर हिमाकत है! मला व क्यों कर तुम्हारे पास आसकती है; अब कि वह तुमारे ही सब कैद कर ली माई है ? मैंने कहा, ता बिहतर है. मैं भी यही रह कर उसके लिए अग्नी जान खाऊंगा। . उसने कड़ाई के साथ कहा. तुम्हारी अंकल पर. मैं देखती हूँ कि.पत्थर पड़ गए हैं. वरन ऐसा चेहूदः खयाल तुम्हारे दिल में पैदा न होता। क्या इस बात के सौचने के लिये तुममें अब जरा भी