पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

  • लखनऊ की कब्र निकल आया और उसने उस नकाबपोश औरत को सलाम कर के कहा,-गुलान हाज़िर है , इसे क्या हुक्म होता है ?" ___ यह सुन और मेरी ओर अंगुली उठा कर उस नकाबपोश

औरत ने कहा, इस कम्बखत का फ़ौरन यहां से ले जाओ और ले जा कर उसी सात नम्बर वाली कोठरी में कैद करो।" जो इर्शाद' कह कर वह कम्बहन हबशी मेरी तरफ़ बढ़ा; लेकिन मैं पीछे हट गया और उसे डांट कर वेला:-- खारदार; मूजी ! अगर अपनी जान की खैर चाहता हो तो दुर ही खड़ा रह और मेरे नज़दीक न आ।" यह सुन कर वह ज़ोर से हंसा; और बोला;-- बदमाश; तू पहिले अपनी जान की तो खैर मना ।" यों कह कर उसने ज़ोर से मुझे पकडा और कमर से रस्सी निकाल कर मजवती के साथ मेरे हाथ पैर बांध दिए। इसके बाद मैंने क्या देखा कि उसी सुरङ्ग से कम्बख्त आसमानी भी निकल पड़ी और उसने उस नकाबपोश औरत की तरफ देख कर कहाबस अब आप यहां से तशरीफ़ ले जाय" यह सुन कर नकाबपोश औरत पलङ्ग के नीचे घुसकर सुरङ्ग में कूद गई और उसके जाने पर आसमानी ने मेरी तरफ़ नखार' आंखों से घर कर कहा:-- क्यों वे बदवख्त । अब तूने समझा कि आसमानी कितनी बड़ी ताकत रखती है?" यह सुन कर मैंने उसके नापाक चेहरे पर थूका और कहाँ,-- बदवस्त कुटनी:तेरी शैतानी की ताकत की मैं कुछ भी पर्या नहीं करता। यह सुनकर वह हरामजादी मुझे गालियां देने लगी और उस हबशी गुलाम की तरफ देखकर बोली,--" कादिर ! इस पाजी को यहां से लेचल और खन्दुक में डाल दे, ताकि यह तड़प तड़प कर मर जाय और अपने गुनाहों की सजा पाए ।" यह सुनकर वह हबशी मुझे घसीट कर लेचला और आसमानीसे