पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/४

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  • लखनऊ की कत्र *

ही दिल में गौर किया कि; याखदा ! इस बला से मैं कर छुटकारा पाऊंगा और क्योंकर खुशी खुगो अपने घर पहुंचकर खुशियां मनाऊंगा! लेकिन यह खयाल होनेही मैंने दिल में कहा कि जबतक प्यारो दिलारामका पता न लगे मेरा घर जाने या किला किल्मकी खुशियां मनाने का इरादा करना महज़ हिराक्त और बेफाईदे है ! गरज़ यह कि इसी तरह के ख़यालों में मैं देरतक उलझा रहा ! उत्त कमरे में रौशनी हो रही थी, इसलिये सामने की दीवार पर टंगी हुई घड़ी में देखा कि तीन बजे कर पंतालीस मिनंट हुए है यह देख कर मैंने सोचा कि अगर मैं कई दिनों तक बेहोशी के आलममें मुबतिला न रहा होऊं तो मुझे इस कमरे में आये एक पहर से जियादह देर नहीं हुई होगी! ___ इसके बाद मैंने चाहाकि पलंगसे उहं और उस सूफियाने कमरे की हर एक चीज़ को बारीक नज़र से देखू कि इतने ही में एक खटके की हलकी आवाज़ मेरे कानों में पहुंचो और भैने नजर उटा कर देखा कि गोया वही शतान की नानी आसमानो मेरे रूबरू चला आ रही है !!! - यह देखकर एक मर्तवः तो मैं धवरा गया, लेकिन फिर अपनी पस्तकिमतीको दूर करके मुस्तैदी के साथ पला पर बैठा रहा और यह आसरा देखने लगा कि दुखं, अब यह पाजो बुढा क्या रङ्ग लाती है ! मैं चुप चाप अपनी जगह पर वैठा रहा इतनेही में वह बुड्डी मेरे पलंगके पायताने आकर खड़ी होगई और मुझे अपनी खूखार आंखों से वेतरह घर कर बोली "यूसुफ़ ! यह क्या मैं ख्वाब देख रही हूं ? " मैंने जरासा मुस्कुराकर कहा, "शायद ऐसा ही हो! » . बह-श्रीफ अभी तक तू शाही महलस के अन्दर मौजद है १, मैं-मुझ जैसे किस्मतवर शब्स के लिये इससे विहतर और कौनसी जगह हो सकती है ?