पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/४२

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  • लखनऊ को फत्र * मैं, लेकिन मैं अपनी जानको या तेरी कुछभी पर्वा नहीं करता। वह,- यह सरासर तेरी बेवकूफ़ी है।"

मैं, लेकिन तू नाहक हुजन क्यों कर रही है ! मैं तो तेरे सामने मौजूद ही हूं, पस जो कुछ तुझे अपने दिलका अरमान निकालना हो, निकाल ले और यहां से अपना मुंह काला कर।" घह,-"तुन यूसुक! तू अपनी इस चई जवानीको नाहक बर्वाद न कर और मेरा कहना मान !" मैं,-(गुस्सेस) वल्लाह,क्या मेरे साथ निकाह किया चाहती है?" घह,-- तु चूल्हे में जा; नालायक, पाजी ! तू मेरे साथ दिल्लगी करता है ?" , मैं,-"क्यों, इसमें हर्ज ही क्या है, जबकि तू शुरू से मेरे साथ छेड़खानी करती मानी है ! " वड,"खैर, मैं तुझ ले लिई दो बातें पूछा चाहती हूं! . मैं,-"खैर, वह भी सुनू ! " बह,-"तू सहीसलामत यहां से अपने घर लौट जाना चाहता है, या यहीं पर जिन्दा दरमौर होना! मैं,-"जो कुछ खुदा को मंजूर हो!" वह,-"आखिर, तू अपनी भी तो कुछ श्वाहिश जाहिर कर - मैं,-"मैं,तुझसे कोई तमन्ना नहीं रखता।" वह,-'तुझे मखमार कर मेरा तलषा चाटना पड़ेगा और जो कुछ मैं पन दूगी, उसे घसरीचश्म तुझे मंजूर करना होगा।" मैं,-,"चल्लाह, बुढापेमें तोतेरा यह हाल है, अगर नौजवान और खूबसूरत होती तो न जाने तू कैसा सितम ढाहती!" यह सुनकर वह झल्ला उठी और देर तक मुझे तरह तरह की गालियां देती रही । मैं मन ही मन में हलता रहा और यही सोचता रहा कि मालूम होता है, यह कंबल मुझले कोई काम लिया चाहताई इसी लिये यह इस किस्म की बातें कर रही है, घर न जब कि मैं हर