पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/४३

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शाहीमहासरा* तरह से इसके कबजे में हूं, यह आसानी से मेरी जान ले सकती है खैर, उसक गालियों का सिलसिला दूर हुआ और उसने कुछ कड़ी आवाज से कहा,---“ले, अबमें जाती हूं ? " मैं,--"वल्लाह, अभी ! तुझो आए ही कितनी देर हुई ?" वह,-"मैं नाहक तुझसे सिर खाली करना नहीं चाहती।" मैं,-"ऐलाही मैं मी तो कहता हूँ। क्योंकि अब तक सिवा फजल बकवाद के मतलब की बात सूने एक भी न कही। " वह,-"तू सुने, तब तो कहूं ! मैं,--"मैं क्या बहरा हूँ?" घह,-"अच्छा तो मैं कहती हूं।" मैं,-"मैं भी सुनता हूँ । पह,-"सुन, अगर तू जीता जागता अपने घर जायो चाहता हे तो जो कुछ में कहूं, उसे तू कबूल कर । " में,-"क्या फिर किसी कागज़ पर तू मुझ से दस्तखत कराना चाहती है ? बह,- कैसा फग़ज़ ? मैं,-"क्या तू इतनी जल्दी भूल गई ? . वह,-(कुछ सोचकर ) "हां, ठीक है ! नीर के खून के बारे में मैं तुझसे एक इकरारनामे पर दस्तखत कराया चाहती थी लेकिन सूने उस काग़ज को बर्बाद कर दिया ।" मैं,-"पस, में पूछता हूं कि क्या अब भी तू मुझसे उसी किस्म के किसी काग़ज़ पर दस्तखत कराया चाहती है ? " धह,-'नहीं, यह कोई और ही बात है। मैं,- ख़र सुनू भी!" इसपर धीरे से उसने एक बात मुझसे कही, जिसे मैंने मंज़र न किया। यहां तककि उसने मुझो हर तरह से डरा, धमका और लालच दिखला कर बहुतेरा समझाया, लेकिन जब मैंने साफ इनकार फिय