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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/५२

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  • लखनऊ की कब्र मैंने कहा --वल्लाह तो क्या तुम दिलाराम नहीं हो !"

उसने कहा,--हर्गिज़ नहीं,--भला, मुझसे और दिलाराम से क्या निस्वत है ? कहां वह एक मुखबिर की बीबी और कहां मैं महलसरा की बेगम!" मैं,--लेकिन, जिस तरह मैं महलसरा के अन्दर मौजद हूं क्या अजब है कि वह भी यहां पर मौजद !" घह.-- शायद हो! लेकिन मैंता यह समझती हूं कि अगर वह कहीं होगी भी, तो नज़ीर के घर होगी, क्योंकि यहां उसके भाने का कोई सबब नहीं मालूम होता।' मैं,- नज़ीर तो अब जहन्नुम को हवा खाता होगा।" वह तो मुमकिन है कि उसके साथ दिलाराम भी दे। जब की आग में जलती होगी।" शुसकी. येोवेढंगी बातें, जो मेरे जमी जिगर पर नमक का काम से रही थीं सुन कर मुझे निहायत रंज हुआ और मैंने उससे कहा- तो फिर तू कौन है ?" उसने कहा.- मुझे क्या तुम नहीं पहचानते १, मैंने कहा,--"मेरी पहचान को तो तू कबूल ही नहीं करती ! वह कहने लगी,--"सुन यूफ | अगर तेरी मौत न माई हो तो जरा होश में आकर शऊर से बातें कर । बर न तू 'तडाक' करनेके वज़ में तेरी जवान धर कर खेचली जायगी।" मैंने कहा- कंबलत, जो कुछ तुझसे बने, तु अपने दिल का रमा निकाल ले। मह,-"यूसुफ़. मैं फिर भी कहती हूं कि तू भाहक अपनी जान को बीदी न कर। मैं,-" दिलाराम के बगैर मैं जीकर करूंहीगा, क्या ?, ___घह,--"अफ़सोस, तू एक फ़ाहिशा औरत के वास्ते, जिसने तेरे साथ दद दर्जे की घेवाकाई की नाहक अपनी जान दे रहा है।