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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/५१

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  • शाहीमहलस सातवां परिच्छेद।

दिलरुबा दिलाराम को मैं अपने सामने देख कर निहायत खुश हुआ, लेकिन मुझे इस बात का ताज्जुब भी हुआकि इस शाही महल. सरा के अन्दर प्यारी दिलाराम क्या कर ई! मैंने जो कुछ उसकी बुराई के बारे में शिकायत सुनी थी,-यानी उसका मुझे छोड़ कर मज़ोर के साथ निकलना वगैरह वगैरह, इन सब बातों को मैं बिलकुल भूल गया और वाकई, उसे देखकर मझे हर दरजेकी खुशी हासिल हुई। यहां तक कि मैं अपनी उस खुशी के जोश को रोकन सका और फौरन एक गहरी चीख मार कर उसकी तरफ झपटा। मैंने अपने दिल में यह सोचा कि प्यारी दिलाराम को भर जोर लीने से लपटाकर मैं उसके गालों के हज़ारों बोसे लूंगा और पूछूगा कि-'अय वेवफ़ा; मुझले क्या स्वता हुईथी, जोतू मुझे इस तरह छोड़कर चली गई थी !' लेकिन अफसोल ! मेरे दौड़तेही; वह नाज़नी जिसे मैं अपनी दिलरुबा दिलारामही समझ हुएथा, मझे झिड़क कर पछि हटगई और कड़क कर बोली:-- बस खबरदार हैवान न बनो और इन्सान के स्वाफ़िक अपनी जगह पर ऊर से बैठो।" मैं उसकी इस तरह त्योरी चढ़ी हुई देखकर सहम गया और मारे अनेस के हाथ मल कर और कलेजा मसोस कर मैंने कहा," वेधा, दिलाराम ! क्या तू अब बिलकुल ही मझे भूल गई और तूने म झसे कतई किन्दारा किया ?. मेरी बात सुन कर वह शोख वेतरह हंस पड़ी और कहने लगी अजी; इज़रत ! तुम इस वक्त होश में थे कि नहीं?" मैंने कहा,-- सच तो यों है कि जबसे तूने मुझसे किनारा किया; मेरे होशोहवास ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है।" ___ वह चोली, तो क्या तुम मुझे अभी तक दिलाराम ही समझे