पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

२९ लखनऊ की कत्र * भने कहा- मैं समझता हूं कि अगर तुम दिलाराम न होगी तो शायद वही नाज़नी होगी, जिसकी तस्बीर मैंने नज़ीर के जेब में से पाई थी। यह सुनकर वह ज़रासी मुस्कुराई और चोली,-"लेकिन अगर मैं इसके जवाब में यह कहूं कि मैं वह नाजन्ही नहीं हूं, तो क्या तुम इस बात के सही समझोगे।" मैंने कहा,"तब मैं यही समझगा कि या तो तुम सरासर झूठ वोल रही हो, या तुम दरअस्ल दिलाराम ही हो! बस सिवा इन दो धातों में से एकही मैं समझगा। क्योंकि यह कभी हाही नहीं सकता कि एक ही सूरत सकल की कई औरतें हैं" उसने कहा,-"क्या खुदाको शान में किसी को एतराज है।। सकता है ?" मैं,-"यह सही है, लेकिन ऐसा कभी हो ही नहीं सकता । क्यों कि दो सूरत जो एक सी होती हैं, उनको यही खास बजह है कि वे दोनों एक साथ पैदा होती हैं।" घहा-"क्या बाज़ वाज़ औरतोंको एकसे ज़ियादह बच्चे एक साथ पैदा नहीं होते ?” मैं- होते हैं लेकिन ऐसा शायद ही कभी देसने या सुनने में आता है। और अगर ऐसा होता भी है तो वे बश्य हर्गिज नहीं जीते। हो एक साथ पैदा हुए दो बच्चे अकसर जी जाया करते हैं और उनको सुरत शकल भी बाज़ औकात बिलकुल एकही सी हुआ करती है। वह,-"फर्ज़ करो कि खुदा ने अपनी कुदरत दिखलाने के लिये एक साथ तीन नाज़नियां पैदा की,जिनमें से एक दिलारामी, दुसरी वह थी. जिसकी सस्वर तुमने नजीर के पास पाई थी और तीसरी ___मैंने कहा,-"अजी हज़रत ब्रस मिहरबानी करके अब आप मुझे भूलभुलैयों में न भुलाएं ! अगर नज़ीर के धोखे आसमानी म में न लाई होतो,उस पुलेत वाली कोठरीमें भोवह न गईहोती, और वहां से.म में