पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/५६

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लखनऊ की प्रक सकते हो?" मैं बोला- यही कर सकता हूं कि तुम्हारी बातों पर कमी यकीन न लाऊ और जहांतक मुमकिन हो, अपने तई तुम्हारी लच्छेदार बातों के चकाब से बचाऊ ।" ____ वह,-- यह गैर मुमकिन है । सुना मियां यूसुफ़! मेरे दिल पर नज़ीर के मारे जाने का कितना समा गुजरा-इसे मैं बयान नहीं कर सकती और उस पर तुर्य यह कि नजीर का खनी मेरे कवजे में कर भी अभी तक जिन्दा है, जिसकी जान कि मैं जब और जिस तरह चाहूं आमानी से ले सकती है। ऐसी हालात में, जब कि मैंने तुम्हारे कुसूर को एकदम मुआंफ़ कर के भाला इज़ की मिहरवानी की है, तु हैं लाज़िम है कि तुम मेरी बात कब्बल फरे और बड़े चैन के साथ अपनी ज़िन्दगी के बाकी दिन बिताओ। " मैंने कहा- हजरतः! आप बजा फ़र्माती है लेकिन गौर तो कीजिए कि मुहब्बत भी क्या ज़ोर जुल्म करने से दस्तयाब होती है ! हगिज नहीं क्योंकि इसका रास्ता निराला है, इसका तरीका ही कुछ और है,यह शै ही दीगर है और इसके दस्तयाब करने को सूरत दूसरो है। यह सुनकर वह कुछ गर्म होकर कहनेलगी, लेकिन मैं जिस तरह हो सकेगा, तुम को अपने काबू में लाऊंगो और अपने खातिरखाह तुमसे अपने दिलको आरजू निकालूंगी।" मैंने कहा,-हज़रत, आपका किया स्वयार है? में अपनी जान देवगा, लेकिन आपकी बात इज़ बिल न क । क बहू ! मैं अब बखयो यह बात सनक भार एक मानल नजर गढ़ाए या वजह किल। मरोफादा प्यारोदि राम की नज़र के ज़रिये जब उसे मार डाला मार बमुझे मारने की फिक्र में है। अफ़सास, मैं किस क़ातिल औरत के फेर में फंसा हुआ हूँ, जिसने कि अपने दिल के अरमान निकालनेके लिये न मालूम कितने