पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/५८

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  • लखनऊ को कत्र वह बोली, खैर खुदा तो तुझे उससे पीछे मिलावैगा, मगर मैं अभी तुझे उससे मिला सकती हूं, अगर उस फ़ाहिशा को तू. कबूल करना चाहै।" ___मैंने कहा,-"नहीं मैं अब तेरी एक भी बात सुनना पा मानना नहीं चाहता, बस अब तू चुप रह और यहां से फौरन चली जा

खैर, तू अब 'चाहे खञ्जर; का मजा चख, "यो कह कर उसने संटी बजाई, जिसकी आवाज सुनकर एक कद्दावर जवान को, जिसके चहरे पर स्याह जालीदार नकाब पडी हुई थी, साथ लिप हुई कंवत्र आलमानी आ पहुंनो आतेही उसने मुझो बड़ीही हिकारत की नजर से देखा और उस नकली दिलाराम की तरफ़ मुखातिब हो कर कहा,-"कहिये अब हुजूर का क्या इरादा है ? '. नकली दिलाराम.-- अफ़सोस. मैं निहायत रुसवा हुई। आसमानी, लेकिन मैंने हज़र को बहुत समझाया था। नकली दिलाराम,-"खर, मैंने अपनी ज़िद का खासा नतीजा पाया, लेकिन इसका एवज में ज़रूर इल जिद्दी ले लूगी। आसमानी,-" इसके क्या मानी ? क्या, अभी कुछ और भरमान बाकी है ?" नकली दिलाराम,-“नहीं, अब कुछभी बाकी नहीं है ( नकाब पोश अबान की तरफ देख कर )"अयूब ! तू इस घरज़ात को मुश्कें बांध कर इसे 'चाखञ्जर' की तरफ ले चल । इसपर जो इर्शाद, " कह कर गुलाम अयूब ने आसानी से मेरी मुश्के चढ़ाली और मुझे घसीट कर वह उस छोटी सी कोठरी में धुला, जिसका बयान मैं फर आया । मेरे पोछे पीछे हाथ में जलता हुआ पलीता लिए हुए आसमानी और वह खनी नाज़नी भी थी। उस कोठरी में पहुंच कर उस गुलाम ने सामने ताक में बने हुए एक मेढ़क की आंख में एक ताली लगा कर तीन बार बाई ओर को घुमाई और झट ताली खेचली । साली बैंच से एक हल की भाषा हुई और यहां का, यानी