पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/६

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  • लखनऊ की कत्र * मरूंगा। यानी तुझे भी अपने साथही लेता चलूंगा!"

यह,.... इसके क्या मानी !" मैं,-" यही कि मैं बादशाह के रूबरू यह बात साफ़ साफ़ कर दंगा कि जहां पनाह ! मुझे यही कुटनी शाही महलसरा के अन्दर वह,-" इस पर यकीन कौन करेगा? मैं,-" बादशा:!" वह,---"तेरी इस बात का सुबत क्या है ? मैं,--सुबन मैं बादशाह के रूबरू पेश करूंगा।" धह,-" ज़रा मैं भी सुनू मैंने इस पर दिल ही दिल में सोचा कि अब इससे क्या कहूं! " खेर, मैंने कुछ सोच लिया और चट कहा,-"तुझपर अभी वह अ.त नहीं जाहिर किया चाहता। . पह,-" तू ज़ाहिर क्या ख़ाक करेगा! कोई सुबूत हो,तब तो !, - मैंने कहा,-- खैर, यह बात तभी जारि होगी, जब मैं बादशाह के रूबरू खड़ा होऊगा। मगर खैर, सुन आसमानी ! मैं मौत से मतलक नहीं डरता। क्योंकि अगर मैं इससे जराभी डरता होता तो इस दिलेरी के साथ तेरै हमराह शाही महल के अन्दर कमी न आता और अगर आया भी था तो अब तक कभी का बाहर निकल गया होता। लेकिन जब कि मैं इस दिलेरी और जवांमदों के साथ महलसराके अन्दर अपना डेरा डाले हुए हूं तो तुझे हुइ समझना चाहिये कि मैं मात से मुतलक नहीं डरता और इस बात की उम्मीद रखता हूँ कि बादशाह जब मेरा उज सुनेगा तो मुझ फौरन छोड़ देगा और थील कच्चों के लिये तेरा कीमियां कर..!" इसका कुछ जबाव वह दियाहो बाहती थी कि वही न ज़मी. जिम मैंने उसे खोलकर अपने पलग के पास देखा था, य. जो कि अम्म रवा, में तमा के जार वैठी थो; गासने मुझे आसमानो