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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/६१

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  • शाहीमहलसरा * को बखपी जांच की, लेकिन कोई दरवाज़ा भीतर से बन्द न था,इस लिये खुल न सका । इसके बाद मैं कमरे की सजावट को अगौर देखने लगा। देवने देखते मेरी निगाह वहां पर लगी हुई तस्वीरों पर गई और मैं रौशनी हाथ में लेकर उन तस्वीरों को गौर से देखने लगा। ____ अल्लाह आलम ! तस्वीरें क्या थी, बला थीं ! ऐसी उम्दः ऐसी बेशकीमत, इतनी बड़ी और ऐसी वेशर्म तस्वीरें मैंने, मुखबिर होने पर भी अपने हाथ से कभी नहीं बनाई थीं ! सब तस्वीरें लिः हसीन औरतों की थीं, सब कदआदम थी, और सब दिल के फ़ड़काने वाली थी ! ! ! मैंने हर एक तस्वीर को बारीक नजर से बगौर देखना शुरू किया, क्यों कि यह तो मेरा काम ही था ! ___ कमरे में कुल सोलह तस्वीरें लगी हुई थी, जो सभी एकसे एक बढ़कर थीं और इस काबिल थीं, कि अगर उनका बनाने वाला सुस विबर मेरे सामने होता तो में उसका हाथ चूम लेता और दिल ही दिल में उले अपना उस्ताद समकता । गरज़ यह कि उन तस्वीरों को पारी २ से देखते देखते मेरी निगाह एक तस्वीर पर जा पड़ी, जिसे देखते ही मैं चीख मार उठा और मेरे हाथ से बत्ती छूट कर फरा पर जा गिरी । लेकिन मैं बहुत जल्द सम्हला और मैंने अपने उमड़ने हुए दिल को तसल्ली देकर बत्ती फिर हाथ में लेली, जो कि फर्श पर गिरने पर भी नहीं चुकी थी और न फर्श में आग ही लगी थी हाई कतरे न के ज़रूर फर्श पर गिर गए थे।

नाजनीन शायद इस बात को जाना चाहते होंगे कि यह तस्वीर किसकी थी, जिसको देख कर मैं इस कदर चौंक उठा था ! वर, सुनिए, बतलाता हूं, वह तस्वीर मेरी दिलरुमा दिलाराम की थी; या उस नाज़नी को थी जो नकाबपोश बन कर मुझे धुनलो वाली कोठरी में से उठवा लाई थी। निस्सह कोताह ! में देर तक उस नाजनी की सूरत को गौर देखा क्रिया, जिलमें, दिलाराम से कोई फर्क न था और अगर मैं दिलाम की सूरत की एक मानी और न देख लेता ना फिर उस