पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/६६

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  • लखनऊ की फव्र * दे जाया करती हैं !“ दस, इसके बाद उसने मुझे दुदकार कर अपने घर से निकल जाने के लिये कह'; लाचार, मैं वापस चली आई !"

यह सुनकर वह नाज़नी सिर झुकाए हुई देर तक कुछ सोचती रही, फिर उसने गर्दन उठाई और कहा,- तेरा खयाल बहुत सही है! इसे मैं भी तसलीम करती हूं कि उस कंबखन हकीम को आसमानी में फकीरिन बन कर कुछ दिया होगा और बहुत कुछ देने की लालच दी होगी, वे कुछ भेद की बातें भी ज़रूर जाहिर की होगी।" लौडी,--“जी, वजा इर्शाद है !" नाज़नी,-"खैर, मैं आसमानी और हकीम, इन दोनों से इस शरारत का बदला लेलूंगी। लेकिन,हकीम की इन बातों पर गौर करने से तो मुझे ऐसा शक हाता है कि शायद आसमानी ने यह बात जान ली है कि उसके कैदी को मैं कैदखाने से उड़ा लेआई हूं।" लौंडी,--"जी, हुज़र का फ़र्मामाना बिल्कुल दुरुस्त है। धाकई, बात ऐसी ही है । मैं अज ही करने वाली थीं।" नाज़नी,"क्याबात है ? लौंडी,-"मैं जब हकीम के घर से निकल कर लोमनेवाली एक गली में घुसी तो मुझे ऐसा जान पड़ा कि कोई नकाबपोश औरत कि वहां पहिले ही से खड़ी होगी, मुझे देख कर तेजी के साथ आगे चलने लगी। तब तक मेरा खयाल नहीं बदला था, लेकिन जब वह रह रह कर पीछे फिर फिर कर मेरी तरफ देखते लगी तो मेरा खयाल बदल गया, और मैंने नेजी के साथ आगे बढ़ कर उसका पीछा किया । इस गली में गो, अंधेरा था, लेकिन दुतरफा मकानों के दरवाज़ों से होकर कुछ रोशनी आ जाया करती थी, इसीसे उसकी हर्कतों को मैंने देखा और उसका पीछा किया। किस्तहकोताह, वह उस गली से जब बाहर हुई तो पीछे फिर कर देखती हुई मह उसरा की तरफ चली, मैं भी उसके साथ साथ पीछे ही पीछे थी। यहां सकशि चार दरवाजे से जब वह महलके अन्दर धुलीतो मैं भी उसके