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- शाहीमहलसरा* पीछे धुली और जब सातवीं ड्योढ़ी पर खाजेसरा ने उसे पहचान कर और “वी, आसमानी " कह कर दा एक दिल्लगी की तो मैने समझ लिया कि यह कंबल आसमानों ही थी।
नाज़नी,-" तूने आसमानी से कुछ छेड़ छाड़ न की ? " लौंडी,-- जी, सुनि र, अर्ज करती हूं । आसमानी के बाद मेरा नघर आया और जब ड्योढ़ी के अन्दर घुमी तो देखती क्या हूं कि अपने मनहून चेहरे पर से वारका हटा कर आलमानी दोए के नजदीक खड़ी है ! मैंने उसे देख कर भी न देखा और कदम आगे बढ़ाया तो उसने तनाजे से कहा,--- “ अजी बी ! बहुत दूर से धावा मारे चली आरही हो, जरा दम तो लेलो ! वर न वीमार हो जाओंगी और तबीयों की तलाश करोगी। यह सुन कर मुझे गुस्ला चढ़ आया और मैंने कहा,--"लेकिन तुम्हारी बहकावट में पड़ कर कोई तबीब मेरी खबर लेगा, तब तो?" इस पर उसने कहा, "बाह, दोस्त! बड़ी दूर को कोड़ीलाई?" यह सुन कर मैंने एक भरपूर तमाचा उसे मारा, जिससे,-"हाय तौबः" कह कर वह अपना सर थाम कर बैठ गई और मैं हुज़र को खिदमत में चली आई । " यह सुन कर उस नाज़नी ने अपने गले से एक मोती को हार उतार कर उस लौंडी के गले में डाल दिया और कहा, मैं तेरी इस कार्रवाई से निहायत खुश हुई, जिसका यह इनाम है ! अगर तू पाजी आसमानी के दांत खट्टे कर सके तो मुहमांगा इनाम पाएगी। “जो हुक्म, हुजर" कह कर वह लौंडी उठी और धीरेले कमरे का दरवाजा खोल और उसे बाहर से बंद करके चली गई। उसके बाद वह नाज़नी देर तक पलंग पर बैठी बैठी कुछ गौर किया की। उसका चेहरा मेरे छपरखट के सामने था, इसलिये मैंने उसके चेहरे के उतार चढ़ाव पर बखूबी गौर किया और समझा कि मैं फिर भी आलमानी की बद नजरों से छिपा हुआ नहीं हूं!!!"