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७६ नमक की पत्र* पेचीद हैं. उनको अभी ज़ाहिर कर देनर में सालिम लगाती है । मैं--" हां, हो, जो कुछ बातें तुम्हारे दिल में हैं। उन्हें अभी नाहिर करके तय करलेना मुनासिब और सारी है। घह,-"इनमें से एक बात तो यह है किलिक की दस ती धूरी है। सकती है, जबकि हम तुमनों इस महल सर' के बदर हो सके। मैं-- लेकिन, यह तो मेरे अभियान के बाहर का अमर ऐसा मैं कर सकता होता तो अब तक कमीका महासबार निकल गया होता। वह... लेकिन तुम आगे मुझसे शादी करने पर आमादा तो होलो, फिर मैं बो भासानी तुम्हें महल सरा के बाहर निकाल ले जाऊंगी।" -: मैं, जल्दी से )" अगर ऐता तुम कर सको तो मैं भी चलने के लिये तैयार हूं।" वह.---"लेकिन उहरो और जल्दी न करी । सुनो, तुम्हे यहां से निकाल कर मैं काजी जमीलुहान के घर ले जाऊंगी और वहां से निकाह पढ़ाकर तुम्हारे लाथ किसी दूसरे मुल्क में जाकर रहूंगी क्योंकि जैसी हालत तुम्हारी है, और शिल लिये तुम महललश को अन्दर कैद हो, यह कभी मुमकिन नहीं है कि लखनऊ तुम बाराम से एक दिन भी रह सको। ___मैं,--" यह सब मुझे मंजूर है ! वह, लेकिन पेश्तर मेरी बात तो सुन लो ! मैं ए ET नाचोज़ लौडी पल मेरे पास दौलत का नामोनिशान भी नहीं है, जिससे मैं तुम्हारी किसी किस्म को अपद कर सकी, सामने मेरे और अपने गुज़ारे के लिये कोमली तोही जिलने जिन्दगी के दिन मारामौचैन के साथ पूरे हो लक। जोहरी ने यह एक ऐसी बात कही कि जिसे सुनकर में बारि आगया । शाकि नाजरीन मेरी हालत से वाकिफ हैं कि दिलाराम के साथ मैं जिस तरह गुजारा करवाया भी