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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/८०

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  • लखनऊ का कार*

मिलने आई है। यह सुनकर मझे निहायत अफसोस हुआ. जिसका बथान में महीं कर सकता, लेकिन उस सइमे को मैंने दिल को मजवून करके बर्दाश्त कर लिया और जाहरा से कहा,-- यह सुनकर, कि अब मेरे घर का नामोनिशान भी बाकी नहीं रह गया. मुझे निहायत अफ़सोस हुआ। इसपर उसने जल्दी से कहा, यह बात मने पेरतर कर दी थी। मैंने कहा-खैर सुनो. मुझे इतना घमंड जरूरथा किमेरे पास एक मकान भी है. खो अल्लाह ने उस घमंड के शीशे को भी चकना र कर दिया, लेकिन इतनी खुशी मुझे जुरूर हुई कि मेरे घर की जगह पर खदा घर (मसजिद ) अन गया । गो, यह कार्रवाई पारूर आसमानी को जानिब से की गई है।गी, लेकिन इतना पहलान अलंका में ज़खर मानूगा कि उलने वहां पर मसजिद घनवादी उसने का यह कार्रवाई भी उसकी पाली पन से खाली नहीं है। क्योंकि यों तो तुम अपने घर के वास्ते दरवार में उज़ भी कर सकते थे और शायद उस पर दरवार कुछ इन्साफ भी कर चकता था, लेकिन अब मसजिद के खिलाफ़ न तुम लव हिला सकते हो और मदरवार इसपर कान देलकता है। मैंने कहा,-" ठीक है, लेकिन खैर! धो ज़ोहरा अब मैं तुमसे क्या कह सकता। वेशक मझे अपने घर पर निहायत घमंड था । गा, मैं कुछ जरदार शपल न था. लेकिन हज़ारों रुपए के मुसविधरी असबाब मेरे पास थे, बैंकड़ों रुपये की तस्वीरें लिखी हुई तैयार थी और गुज़ारे के लायक और भी बहुत से सामान थे। गो, रुपए पैसे at उत्तने थे, जो कुछ थो, उसकी बदौलत जहां मैं जाता, नहीं मिहनत करके आसानी से दो पैसा कमो खाता. लेकिन अमैं लाचार हूं और सिमा इसके और क्या कह सकता हूं कि वी जाहरा!