पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/८६

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लखनक की का ग्यारहवां परिच्छेद। मैं देर तक इसी किस्म के ख़यालोंमें उलझा हुआ पलंग पर पड़ो रहा फिर उठा और कमरे के बगल वाली एक कोठरी में जाकर मामूली कामों से फुर्सत पाई । फिर आकर मैं मसनद पर बैठ गया और शमादान को नजदीक:ख और आलमारी में से एक किताच लेकर पढ़ने लगा। देर तक मैं किताब देखता रहा , इतनेही में एक खटके की आवाज़ सुनकर मैं चौंका और देखा कि वहीं मेरी प्यारी और मलका की लौडी कमरे के अन्दर आई और मेज़ पर खाना रख कर चली गई। मैं उसकी तरफ़ टकटको बांध कर देखता रहा, पर उसने मेरी तरफ़ जरा नजार न की और खाना रखकर तुरन्त बा रस चली गई। मैंने चाहा कि उसे पुकारूं और कुछ बात चीत करूं लेकिन यह समझ कर खामोश रहा कि देखं यह खुद मुझसे बोलती है या नहीं। लेकिन जब वह मेरी तरफ़ बगैर देखेही चली गई तो मैं ताज्जुब्ध करने लगा और सोचने लगा कि अभी कुछ देर पहिले तो यह मुझसे इतनी धुलघल कर बातें कर गईथी और निकाह वे भागने के बारेमें बिल्कुल सलाह पक्षी कर गई थी, लेकिन फिर तुरतही इसका दिल क्यों फिर गया कि बोलनाता दर किनार,बगैर चारश्म किएही घापस चली गई ! इस बात पर जितना मैं गौर करता, उतना ही मुझे उस पर शक होता और मैं सोचता कि क्या असलो लौंडो यहीं है और अभी कुछ देर पहिले जो मुझसे शादी की बात पक्की कर गई थी, वह नकली थी। फिर मैंने सोचा कि नहीं, यह बात कमी होही नहीं सकती ! किसी खास सबब से ही यह इस वक्त मुझले न बोली होगी और अच्छा हुआ कि मैं भी इस वक्त इससे कुछ न बोका । क्योंकि इस ने .. मुझे समझा दिया है कि,-'जबतक मैं खुद न बोलं,मुझसे न बोलना . और जब तक मैं यह न कई कि,--- लीजिये आपकी लोंडी हाज़िर ___ है," तब तक मुझे असली च समझना।'