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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/८५

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  • शाहीमहलसरा उसी वक्त मेरे कानों में एक सुरीली ताल पहुंची; जो किसी नाज़नी के सुरीले गले से निकल रही थी। उस सुरीली तानकी आवाज को चुनकर मैं पलंग परसे उठ बैठा और कान लगाकर सुनने लगा । वह एक गमल थी. उस कमरे के बाहर की तरफ गाई जाती था। गाना तो बहुत साफ़ सुनाई देता था लेकिन वह गज़ल किस नाज़नो के गले से निकल रही थी, इसे में पहचान न सका। अगर नाज़रीन सुनना चाहे तो सुनले, उस गज़ल की मैं नीचे तहरीर किए देता हूं,

“चेकरारी से बहुत हाल है अबतर अपना । मिस्ल सीमाब तयां है दिले मुज़नर अपना ॥ मुर्गे दिल हल कर गेसू में हुआ है अपना । फंस गया दामें मुहब्बत में कबूतर अपना । सैकड़ों खन हुआ करते हैं नाहक हर रोज़ । आप निकला न करें बैंचकर खंज़र अपना ॥ दिल का वोसालबेतर नहीं मिलता ऐखिज । आवे हवा से है महरूम सिकन्दर अपना ॥ ननद दिल जुल्फ़ के लौदे में गया ऐ आजिज़ । होगया इश्क में नुक्सान सरासर अपना ॥" अल्लाह, यह कौन नाज़नी है, जो इस तरह अपने दिली प्रम को इस तरह जाहिर कर रही है !!! या खुदा, अब तक तो इस कमरे में बाहर की कोई भी आबाजा नहीं सुनाई दी, लेकिन आज क्या है कि यह गजल सुनाई दी! कहीं यह नाज़नी भी तो मेरी आशिक नहीं है और मुझे अपना इश्क दिखाने के लिये यह गज़ल सुना रही है!!! और जो हो, लेकिन इस ग़ज़लकी आवाज़ उस जानिअसे नहीं रही थी, जिधर उस परीजमाल का कमरा था, यानी जिस रास्ते से मलका और उसकी लौंडी आया जाया करती थीं। खैर, मैं देर तक कमरे में टहलता हुआ, इन्हीं बातों पर और करता रहा,फिर आकर पलंगर लेट रहा,लेकिन मनहस ख़यालों ने मेरी जान न छोड़ो।