पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/९०

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लखनऊ की का बेडी, तीक बेड़ी नहीं कही जासकती ऐसी हालत में यह आराम वैशाही है, जैसा कि सोने के पिंजड़े में बन्द किए हुए जानवर पायर्या करते हैं। हां, अगर आजादी के साथ मुझे लिर्फ तुम्हारा दीदार ही नसीबहो और आवोदाने के लिये मैं दरदर मारा फिरूं तो इस आराम से उस आजादी के आराम को मैं कार दर्जे बढ़कर समझंगा।" मेरी बातों को वह शायद गौर से सुनती रही, क्यों कि जब तक मैं कहता रहा, वह सन्नाटा मारे हुई टकटको बांधकर मेरी तरफ देखती रही। बाद मेरी वात ख़तम होने के उसने कहा, “प्यारे यूसुफ, यह तुम्हारा फर्माना बजा है और मैं भी यही चाहती हूं कि तुम आजाद कर दिये जाओ। मैंने कहा,-"अल्लाह, वह कौनसा दिन होगा, जब मैं खुली हुई जमीन में आजादी से धम सकूगा।" उसने कहा,-"वह दिन बहुत जल्द आया चाहता है । यानी अब सिर्फ तुम्हारे ही हाथ आजादी है! " मैंने जल्दी से कहा,--"मेरी आजादी मेरे हाथ क्योंकर है ? " उसने कहा,-"सुनो मैं बतलाती हूं ----- यह इतनाही कहने पाई थी कि घड़ी की घंटी बज उठी, जिसके बजते ही वह उठ खड़ी हुई और बोली,-"दोस्त इस वक्त अब मैं नाती । अगर मौका हाथ आया तो रात को फिर मुलाकात करूंगी।" मैंभी उठ खड़ा हुआ और बोला, "आह, अफसोस,कैसे वेमौके घंटी बजो ! अफलास, अभी खुद को मुझे इस कैद से रिहा करना मंजर नहीं हैं।" उसने कहा,-"नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है । मैं फिर मिलकर तुमसे इस बारे में बाते करूंगी।" मैंने कहा,-"मगर तुम जहां तकहो जल्द आना, क्योंकि आम की यात से मैं बहुत ताज्जुब में हूं।"