पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/९४

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लखनऊ की का पर खेचकर कलेजे ले लगा लिया और उसके गुलाबी और मुलायम सालों के बोसे लेने लगा। उसने भी इस गुस्ताखो का भरपूर बदला चुकाया और फिर मुझले अलग हो और मसनद के नीचे उतर कर कहा,-"आइ, आज तुमने मुझे बेतरह ठगा!" मैंने कहा,---"हा, 'ठीक है; उल्टा चोर कोतवाल को डांटे! लेकिन तुम मसनद के नीचे क्यों जा बैठी  ?" वह,-"यह जगह वेगम के बैठने की है।" मैं - लेकिन इस वक्त वह यहां है कहां?" वह---"चाहे नही, लेकिन यह मुझे मुनासिब नहीं कि तुम्हारे बराबर बैठ ।” मैं,- वल्लाह, थे नखरे रहने दो ! आखिर, इतना हिजाब कव तक कायम रहेगा ?" बह-जब तक बाकायदे निकाह न होलेगा।" यों कहकर उसने एक कहकहा लगाया, इतनेहीमें वह घंटी थज उठी, जिसके सुनतेही वह घबराकर उठ खड़ी हुई और मेरे बहुत कुछ पूछते रहने पर भी एक बात का भी जवाब न देकर वह तेजी के साथ कमरे के बाहर निकल गई। ' दरवाज़ा ज्योंका त्यों बन्द होगया और मैं फिर तनहां रह गया। घंटी की आवाज़ सुनतेही, ज्योंही वह धवरा कर उठी थी, मैंने उससे नीचे लिखे कई सवाल किए थे,- । हैं, यह घंटी किसने बजई ? क्या तुम बेग़म के जाहिर में यहां आई हो?" यह घंटो किस हिकमत से बजती है ?" “अब कब मुलाकात होगी?" । अगर, तुम बेगम की भेजी हुई आई हो तो किस काम के लिये आई हो, मुझे बतलादो, जिस में अगर वेशम पूछे तो मैं उससे वही बात बताओ!"