सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

• लखनऊ की कत्र घह खुद अगर मेरे घर आकर मुझसे मिलना मंजर करेगी तो मैं खुशीस उसकी दोस्ती कबल करूंगा और आज़ाद होकर इस लौहीं इस ख सूरत लौंडी को अपनी बीबी बनाऊगा। मैं समझता हूं कि इस तराकेसे दौलत खूब हाथ आएगी और इस प्रतिको यह लौंडीमी शायद दिलले पसंद करेंगी। वह चुपचाप यहांले निकलकर मेरेयहां आरहेगी और मैं उसे छिपाकर अपने यहां रक्खंगा। लेकिन अगर इस लौडीका कहना सचहो और कंबख्त आसमानीके मामैं इस शहर में बेखटके न रह सकते फिर लाचार लौंडी ही की बात मानना पड़ेगो और मैं उसके साथ किसी गैर मुल्क में, जैसीकि सलाह उस के साथ हुई है, भाग जाऊंगा और चैनसे अपनी औकात बसरी करगा। आह,मैं यह क्या अनाप शनाप बकने लगा! ओफ़! नाज़रीन! इस वक्त मैं विलकुल पागल होरहा था,तभी इतनी बातें मैं बकाया। आखिर, इन फजल खाती में सिर खपाने से मैं बाजारहा और पलंग पर जाकर लेट रहा। और सोचा कि अगर यह लौंडी आजही मझे भागने के लिए कहेगी तो मैं मार होने का बहाना करके इनकार कर जाऊंगा। लेकिन, जब कि मैं इस बला को कैद से छुटकर खुदा के फ़ज़ल से आजाद होता तो फिर क्यों न जहांतक जल्द होसके, यहां से भागे। यहां से भागकर उस लोर्डी, उसकी दौलत, अपने इल्म और अपनी किसमत पर सत्र कर और आफ़त की कैद से छुटकारा पाऊँ !! आह, फिर वही खयाल लाचार, घबरा कर मैं पलंग से नीचे उतर पड़ा और उस अलमारी के पास गया,जिसमें वह सजीव घडी थी। मैंने उस मालमारी को खोला और बेगम के मना करनेपर कुछ अमल न करके उसकी सूई को तेजी के साथ घुमा दिया !! फिर मैं कमरे में चहलकदमी करने लगा और इस बात के जानने के लिये तैयार हुआ कि देखू, इस सुई के धुमाने का क्या नतीजा