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पृष्ठ:लवंगलता.djvu/२९

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२६
[पांचवां
लवङ्गलता।


पर उसके मुसाहबों में से कोई भी नहीं है, इसलिये उसे निराले में उस चित्र के देखने का अच्छा मौका मिला है। वह रह रह कर हुक्का भी पीता जाता है और कभी कभी ठढी सांस भी लेता जाता। योही जब उस चित्र को देखते देखते आधी रात हुई, तब उसने एक खिदमतग़ार को बुलाकर अपने मुसाहब नज़ीर ख़ां के हाज़िर करने का हुक्म दिया।

बात की बात मे उसके हुक्म की तामीली की गई और दस ही मिनट के अन्दर नजीर खां ने उस कमरे में पहुंचकर आदाब अर्ज किया। नवाब ने उसे अपने पास बैठने का इशारा किया और उसने बैठते वैठते एक नज़र उस तस्वीर पर डाल कर कहा,—

"हुजूर के दुश्मनो की तबीयत आज कुछ नासाज़ नज़र आती है!"

सिराजुद्दौला ने उस तस्वीर पर से आंख हटाकर नजीरखांकी ओर देखा और कहा,—" भई! नजीर! वाकई, आज हमारा दिल एक अजीब तरह की परीशानी मे मुबतिला होरहा है।"

नज़ीर,—" अगर ताबेदार उस अमर के सुनने काबिल हो तो हुजूर वतला कि वह कौन सी बात है, जिसने हज़रत के दिल को माज इतना परीशान कर रक्खा है?"

सिराजुद्दौला,—"क्या कहें, भई। वह मर्ज काबिल इज़हार नहीं!"

नज़ीर,—"बेशक, हुनर का फ़र्माना बजा है, लेकिन बात यह है कि जब तक गुलाम उस बात से आगाह न हो ले, क्योकर उस बारे में अपनी नाकिस राय जाहिर कर सकता है।"

सिराजुद्दौला,—"वाकई, मिया नजीर! तुम्हारा कहना सही है, लेकिन वह बात ऐसी पेचीली है कि हज़ार कोशिश करने पर भी ज़बान से बाहर नहीं निकलती!"

नज़ीर;—(मुस्कुराकर) "अगर मेरी समझ मेरे साथ दग़ा नहीं कर रही है, तो मैं बखूबी इस अमर को समझ गया हूं!"

सिराजुद्दौला,—"वह क्या?"

नजीर—"अगर कुसूर मुआफ हो तो जुबान खोलूं!"

सिराजुद्दौला,—"हां, हां! तुम्हें जो कुछ कहना हो, बेखौफ कहो; आखिर इस तनहाई के आलम मे हमने तुम्हें बुलाया ही किस"