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पृष्ठ:लवंगलता.djvu/३१

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२८
[पांचवां
लवङ्गलता


सिराजुद्दौला,—(ठढी सांस भरकर) "दोस्त, नजीर! मेरे पास कम से कम बीस हज़ार तस्वीरे खूबसूरत नाजनीनो की मौजूद है, मगर इसके मुकाबले में वे सब बिल्कुल रही है।

नजीर,—"हज़रत सलामत! जबकि इस नक़ल में यह बाबत है, तो फिर वह असल जिन्स कैसी होगी, इसके समझने के वास्ते मेरी अकल हैरान है।

सिराजुद्दौला,—'बेशक, बेशक! बात ऐसी ही है; और हम तो ऐसा समझते है कि वह मुसव्वर, जिसने कि इस परोरू की तस्वीर खैंची है, हर्गिज़ उस परीजमाल के नूर का साया मुतलक इस शबीह मे न लासका होगा!"

नज़ीर,—"जी हा. हुजूर! अक़ल तो ऐसा ही कहती है।"

सिराजुद्दौला,—"तो अब तुम्ही बनलाओ कि इस तम्वीर को देखकर फिर किस आशिकमिज़ाज का दिल बेहाथ न होगा!"

नजीर,—"उसमे भी-कद्र गौहर शाह दानत!!"

सिराजुद्दौला,—'भई, मज़ाक रहने दो, और अब यह बतलाओ कि इस परीजमाल का दीदार स्योकर नसीब हो।

नजीर,—"हुजूर। यह कौन बड़ी बात है। बल्कि उस शख्स को ता अपने तई ख शनसीब समझना चाहिए, जिसकी हमशीरा पर हुज़र की इस कदर मिहरबानी की नजर हुई हो।"

सिराजुद्दौला,—"तुम्हारा कहना सही है, मगर हिन्दू ऐसे बेवकूफ़ है कि वे अपनी इस खुश किस्मती को सगसर बदकिस्मती समझते है, यहा तक कि ऐसा करने के एवज़ मेवे खुदमरजाना या जान दे देना पसंद करते है, मगर अपने बादशाह को इस तरह खुश करना हर्गिज पसंद नहीं करते। यह सिफ़त अगर दुनिया की किसी कौम मे है तो सिर्फ मुसलमानो ही मे है कि वे उसीमे अपनी खुश किस्मती समझते है, जिसमे उनका बादशाह खुश होवे।"

नजीर,—खुदा की मार इन कम्बख्तो पर! वाकई, ये हिन्दू अब्बल दर्जे के जिद्दी, बेवकूफ और काफ़िर होते हैं, मगर, हुजूर! इसकी पर्वा क्या है? अगर हुजूर चाहे तो परिस्तान का तोहफ़ा लेकर अभी फ़रिस्ते हाजिर हो, इन्सान की तो बात ही क्या है?"

सिराजुद्दौला,—"मई, चापलूमी को इस वक्त ताक पर धरो और सांचो तो सही कि यह मकाम कैसा पेचीदा है कि अक़ल