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परिच्छेद
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लवङ्गलता


और रहा करते थे। एक दिन वे दिन के तीसरे पहर के समय राज-प्रासाद के उस उद्यान मे, जो अन्तःपुर से सटा हुआ था, उदासीन वेश बनाए रहल रहे थे। उस समय उनके चित्त की गति ऐसी चचल थी कि जो उन्हें एक जगह ठहरने नहीं देतो थी, इसी लिये वे कभी सरोबर कमी माधवीलता की कुंज, कभी गुलाब की टट्टी और कभी नकली पहाड़ी के इर्द-गिर्द घूम रहे थे।

योहद घूमते घूमते उन्होने माधवीलता के मंडप के भीतर स्फटिक-शिला पर एक मोतियो की माला पाई और उसे पाते ही अपने कलेजे और आखो से लगाकर एक ठंडी सांस भरी; फिर वे उसे अपने हिए से लगाकर कहने लगे,—

"हे मोती के हार। तू धन्य है कि एक बेर सूई से अपना हिया छिदा कर प्यारी के स्तनो परलोटा करता है, किन्तु एक मैं अभागा हूँ कि मदन-वाणो से हृदय मे सेकडो छेद कराने पर भी मुझे सपने में भी प्यारी के दर्शन नहीं होते।"[१] फिर कुछ देर तक उस हार को अपने हदय से लगाए रहने पीछे उन्होने कहा--" यह हार उस मृगनैनी के स्तनो पर लोटा करता है। हाय! जब मुक्तो[२] यह दशा है तो मुझ जैसे काम के गुलाम की तो रात हो न्यारी है!"[३]

इधर तो उस हार को पाकर कुमार मदनमोहन इस प्रकार अपने हृदय की अधीरता प्रगट कर रहे थे और उधर जब नरेन्द्रसिंह की प्यारी बहिन लवंगलता ने अपने गले में हार न पाया तो घबरा कर वह उस्मे खोजती हुई अन्तःपुर के पीछे-वाले उसी उद्यान मे आई, जिसमे मदनमोहन उस हार को अपने हृदय की बेदना सुना


  1. "सूचीमुखेन सकृदेव कृतव्रणस्त्वः।
    मुक्ताकलाप! लुठसि स्तनयोंः प्रिययाः।
    वाणैः स्मरम्य शतशो विनिकृत्तर्मम्मा,
    स्वप्नेऽपि मां कथहमं न विलोकयामि॥"

  2. यहां "मुक्त" शब्द श्लैपार्थ का द्योतक है।
    अर्थात् मुक्ता-मुक्त, अथवा मुक्त-मुक्ति को प्राप्त हुए जन।

  3. "हारोऽयं मृगशावइया लुठति स्तनमण्डले।
    मुक्तानामप्यलस्थेयं के व्यंजन स्मरकिङ्कराः॥"