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[छठवां
लवङ्गलता।


रहे थे। जिस समय मदनमोहन ऊपर कहे हुए वाक्य उस मोती के हार से कह रहे थे कुमारी लवंगलता, की ओट में खड़ी खड़ी सब सुन रही थी। सुनते सुनते कई बार उसने उसासे ली, कई बार उसकी आखे भर आई और कई बार उसका हृदय मदनमोहन के हृदय से भी अधिक डामाडोल हो उठा, किन्तु जगदीश्वर ने अवलाजाति के हृदय ने एक लज्जारूपी ऐसा प्रबल वल का सोता बहा दिया है कि जिससे समय समय पर ये अपने उमड़ते हुए मानसिक समुद्र के बेग के रोकने मे सामर्थ होती है! यही कारण था कि कुमारी लवंगलता ने अपने हृदय के वेग को यथाशक्य रोका और वह इस धुन में लगी कि,—इनसे यह हार क्योकर मागं?"

यद्यपि वह भी मदनमाहन को जी से चाहती थी, जैसा कि मदनमोहन उसे प्यार करते थे, पर उन दोनो की बात चीत होने का अवसर अभी तक नहीं आया था। इसोसे वह राजकुमारी घबरा गई थी और यही सोचती थी कि—"इनका सामना क्योकर करू और हार इनसे किस तरह मांगू?"

निदान, वह कुछ सोच समझ कर आप ही आप यो कहती हुई उस लतामडप के आगे से होकर निकलो कि,—"हाय! मेरी मातियों की माला न जाने किधर गिर गई, अब मै उसे कहां ढूंढूं।"

कुमारी की आहट पाते और उसका बोल सुनते ही मदनमोहन कुंजभवन से बाहर निकल आए और उसके पीछे दो चार पग चल कर कडा जी करके बोले—"राजकुमारी! आपका हार इस माधवी-कुंज की स्फटिक-शिला पर मैने पाया है, लीजिये।"

इतना सुनते ही लवगलता स्वाभाविक लज्जा से कांप उठी, उसका चेहरा लाल हो उठा और उसने मदनमोहन की ओर बिना देखे ही कखियो से हार को लखकर कहा,—"आपने कैसे जाना कि यह हार मेरा है?"

मदनमोहन,—(जहां पर खडे थे, वहीं खडे खडे) "सुन्दरी! यहाँ अन्तःपुर के उद्यान में सिबा आपके और दूसरी ऐसो कौन भाग्यवती आती है, जिसके हिये को यह हार अलकृत करेगा।"

लवंग॰—"आप इस उद्यान मे किसके हुक्म से आए?"

मदन॰—"यहां पर न आने ही के लिये मुझे किसने मना किया था?"