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[सोलहवां
लवङ्गलता।


जाग रही हो! हां! उस समय तुमने अपना छल अवश्य प्रगट कर दिया था, जब मैंने तुम्हारे पैरो मे हाथ लगाया था।"

लवंग॰,—"प्यारे! भला, ऐसा भी आपको उचित है! आप यदि मेरा पैर छूएगे तो मैं किस नरक में जाऊंगी!"

मदन॰,—"किन्तु, प्यारी! प्रेमपथ के पथिक को नाम से क्या प्रयोजन है!"

लवंग॰—"यह ठीक है, किंतु, नाथ! वह प्रेम किस काम का, जिसमें धर्म, मान, मर्यादा, नीति और पद का बिलकुल ध्यान ही छोड़ दिया जाय और मनमानी परिपाटी पर चला जाय!"

मदन॰—"यह सच है, किंतु. प्यारी! हृदयेश्वरी! संसार में-विशेषकर गृहस्थाश्रम मे वे धन्य हैं, जिनके घर तुम्हारे जैसी गृह-लक्ष्मी निवास करती है। इसीसे कहते है कि जहां तुम्हारे ऐसी लक्ष्मी निवास करती है, वहां किसी प्रकार की दुर्गति (दरिद्रता) नहीं आ सकती और वहां पर नरक का भयानक स्वप्न भी अपना आधिपत्य नहीं जमा सकता!"

लवंग॰,—"अस्तु जो कुछ हो, परन्तु आपने तो मुझसे भी बढ़कर स्थिरता दिखलाई! क्यो कि जब मैंने आपको नींद मे अचेत समझ लिया तो उठकर जो मेरे मन में आया,सो मैं भी करने लगीथी!"

लवंग॰,—"और जब मेरा जी चाहा, तो मैंने भी अपनी कपट- निद्रा को बिदा कर दिया!"

लपंग॰,—"बहुत अच्छा काम किया! मैं नहीं जानती थी कि भापमें इतने गुण भरे हुए हैं! अस्तु, इन बातों को जाने दीजिए और कल एक आदमी के हाथ मेरे भैया के पास एक चिट्ठी भेजिए। मैं भी भाभी के पास एक चिट्ठी भेजूंगी, क्यों कि मुझे यहां आए दो महीने से अधिक हुए, पर आज तक वहांकी कोई खोज-खबर मुझे नही मिली, इससे अब जी बहुत घबराता है।"

मदन॰,—"आदमी के भेजने की आवश्यकता क्या है? ज्योतिषी जी से मुहुर्त पूछकर मैं तुम्हींको वहां ले चलूंगा।"

लबंग॰,—"क्या बिना बुलाए ही!"

मदन॰,—"क्या अपनी भाभी की वह बात नुम इतनी जल्दी भूल

गई,जिस बातकी कोहवरमें उन्होंने मुझसे प्रतिज्ञा करा ली थी![१]


  1. हदयहारिणी का पंद्रहवां परिच्छेद देखो।