इस पर लवंगलता ने मुख से तो कुछ भी न कहा, केवल अपने प्रियतम के कपोलो को बड़े अनुराग से चूम लिया; परन्तु हां! उसकी आंखों ने प्रेमाश्रु द्वारा अपने पति के उदार हृदय की कृतज्ञता अवश्य प्रगट की।
मिदान, वह रजनी इसी प्रकार सुख से व्यतीत हुई, प्रातःकाल होने पर लवंगलता गृहकार्य में लगी और मदनमोहन ज्योतिषीजी को बुलाकर यात्रा के मुहुर्त का निर्णय करने लगे।
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सत्रहवां परिच्छेद,
हितोपदेश।
"सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः।
कटुकस्य च पत्थ्यस्य वक्ता श्रोतासुदुर्लभः॥"
(महाभारत)
तीन चार दिन तक, जब तक कि वे कुल सवार, जो लवंगलता आदि के पकड़ लाने के लिये भेजे गए थे, लौटकर न आए, नव्वाब सिराजुद्दौला बाहर ही बाहर रहा और अपने महल के अन्दर न आया। परन्तु जब वे सब सवार खाली हाथ लौट आए और उन सभी ने किसीके भी हाथ न लगने का समाचार उसे सुनाया, तो वह बहुत ही क्रुद्ध हुआ, पर वह कर ही क्या सकता था!
निदान, वह भीतर ही भीतर कुढ़कर रह गया और मन ही मन रंगपुर तथा दिनाजपुर पर चढ़ाई करने का विचार करने लगा, किन्तु ऐसा करने का भी उसे अवसर न मिला, क्योकि अगरेजों के साथ उसकी लडाई ठन गई थी और उसे पलासी के मैदान में शीघ्र ही अपनी सेना लेकर उपस्थित होना था।
आज पांचवें दिन, संध्या के समय यह अपनी प्रधाना बेगम लुत्फ़उनिसा बेगम के महल में आया। यद्यपि लुत्फ़उन्निसा को मीना के पत्र से सारा हाल मालूम होगया था, परन्तु यह उन