के सामने पेश किए गए, उनसे वह दुर्गचारी बार बार यही पूछता —' बतलाओं अगर जांबवशी चाहते हो तो जल्द बतलाओं, अंगरेज़ों ने ख़जाना कहां छिपाकर रक्खा है?'
किन्तु बेचारे हालवेल साहब ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया, तब सिराजुद्दौला ने उनके सहितदो और अंगरेजो के पैरो में बेडिया डलवाकर उन तीनों को तो खुली किश्ती पर कैद रहने के लिये मुर्शिदाबाद भेज दिया और शेष बील गोरोको छोड दिया; किन्तु तीन चार दिन पीछे स्वर्गीय नव्वाब अलीवर्दीग्वां की बूढी और नेक बेगम हमीदा ने सिराजुद्दौला से सिफारिश करके उन तीनो गोरों को भी कैद से छुटकारा दिलवा दिया था।
इधर तो यह सब होरहा था और उधर जब इस अत्याचार का समाचार मदगज पहुंचा तो वहां वालों ने, १०० गोरे और १५७० देशी सिपाहियों के साथ क्लाइव को जो दूसरी बार इङ्गलैण्ड से इष्टइण्डिया कम्पनी का लेफ्टिनेण्ट कर्नल होकर आया था, दस जहाज़ो पर कलकत्ते भेजा। दुसरी जनवरी सन् १७५७ ई॰ को पहुंचते ही क्लाइव ने पहिले कलकत्तालिया, जिससे चिढकर तोसरी फर्वरी को सिराजुद्दौला चालीस हज़ार आदमियों की भीड़-भाड़ लेकर कलकत्ते के पास जा पहुँचा, किन्तु क्लाइव ने बंगाले के कई ज़िमीदार राजाओं की सहायता से किले के बाहर निकल सिराजुद्दौला की फौज पर ऐसा हमला किया कि यद्यपि उस हल्ले मे उसे १२० गोरे, १०० सिपाही और दो तोपे गवांकर फिर किले मे पनाह लेनी पड़ी, पर सिराजुद्दौला २२ अफसर और ६०० सिपाहियो के मारे जाने से इतना घबरा गया कि उसने उस समय इस शत्तं पर सुलह करलो कि,—"जो कुछ कम्पनी का माल असबाब लूट और जप्ती मे आया हो, दाम दाम लौटा दिया जाय, कम्पनो के आदमी कलकत्ते में चाहे जैसा मजबूत किला बनावे, टकसाल अपनी जारी करे, अड़तीसो गावो पर, जिनकी सनद सन् १७१७ ई॰ में उन्होने पाई थी अपना कमा रक्खे, बगाले में जहां चाहे, बेरोक टाक सौदागरी करे, जहां चाहे, कोठियां खा ले और महसूल की माफी के वास्ते उनका दस्तखत काफी समझा जावे।"
आखिर, इस शर्त पर सुलह होगई। इसमे कोई सन्देह नही कि सिराजुद्दोला ने इस शर्त पर केवल अंगरेजो को भुलावा देने