पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१०

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चतुरसेन की कहानियाँ और निर्मम आलमगीर, जो प्रेम की कोमलता से दूर रहा, इस अपनी नन्हीं और भोली बेटी को सचमुच प्यार करता था। उसने अपने हाथों से सहारा देकर उसे सुखपाल में सवार कराया, और आँखों में आँसू भरकर बिदा कराया। सवारी जब दिल्ली की सीमा पार करके लहलहाते खेतों, जंगलों और पहाड़ियों पर पहुँची, तो लाला रुख ने अपने नाजुक हाथों से पर्दा हटा कर एक नज़र दूर तक फैली हुई हरियाली पर डाली, और जो कुछ भी उसने देखा, उससे बहुत खुश हुई। आज तक उसे जंगल की हरयाली देखने का मौका नहीं मिला था, शाही महल के झरोखों से भी वह झांकन पाती थी। शाही महल की तड़क भड़क और बनावट से वह ऊब गई थी, इसलिए जंगल का दृश्य देख कर उसके मन में आनन्द होना स्वाभाविक था। नए नए दृश्य उसकी आँखों के आगे आते-जाते थे। रंग विरंगे फूलों से लदे हुए वृक्ष और लताएँ, स्वच्छन्दता से चौकड़ी भरते हुए हिरनों के झुण्ड, चह- चहाते हुए भांति भांति के पक्षी उसके मन में कौतूल पैदा कर रहे थे। वह उत्फुल्ल नेत्रों से प्रकृति की शोभा निहारती हुई और भौति भांति के विचारों तथा शंका से उद्विग्न सी आगे बढ़ रही थी। हर दस कोस पर पड़ाव पड़ता था । एक दिन जब सुदूर पश्चिम और उत्तर के आकाश को क्षितिज रेखा में हिमालय की धवल चोटियाँ प्रातः काल की सुनहरी धूप किरणों से चमककर, देखनेवालों के नेत्रों में चम- कार पैदाकर रही थी, और शीतल मन्द सुगंध वासन्ती वायु गुदगुदाकर मन को प्रफुल्ल कर रही थी! लाला रुख अपने खीमे में, रेशम के कोमल गद्दे और तकियों में अलसाईसी पड़ी