पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१०६

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चतुरसेन की कहानियाँ मैं उसे देखते ही उससे लिपट गई। ध्यान से देखते ही मुझे मालूम हुआ, हीरा का वह रूप-रङ्ग उड़ गया है। वह पीली पड़ गई है और उसकी उन सुन्दर आँखों के चारों ओर नीले दारा पड़ गए हैं, गले की हड्डियाँ निकल आई है। उसे मैं देखती ही रह गई। वह मुझे इस प्रकार अपनी ओर देखते देख कर हँस पड़ी। हाय ! वह हास्य भी कितना रूखा था! कौन होरा के उस हास्य से सुखी होता ? पर मेरे मुँह से बात न निकली। मैं नीची दृष्टि किए कुछ सोचने लगी। हीरा ने कहा-उठ-उठ भानन्दी ! जल्दी कर, तुझे महाराज ने याद फर्माया है। उसके होठ काँप गए, स्वर भी विकृत हो गया। मैं भी डर गई । मैंने कहा-यह किसी तरह सम्भव नहीं हो सकता। क्या म इस समय महाराज के पास जाने के योग्य हूँ? "इस बात से क्या बहस है ? तुझे चलना तो पड़ेगा हो।" "मैं हर्गिज न जाऊँगी।" उसने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा, पुचकारा और कहा-वेवकूफी न कर, यह रियासत है, अपना घर नहीं, महाराज की हुक्मउदूली की सजा तुझे मालूम ? "क्या मार डालेंगे? "यह तो कुछ सजा ही नहीं ?" "तब ?"-मैंने शङ्कित स्वर से पूछा "ईश्वर न करे कि तुमे फजीहत उठानी पड़े। मेरी प्रार्थना यही है कि उनकी इच्छा में दखल न देना, इसी में खैर है।" इतना कहकर उसने मुझे उठाया। पर मैं उठ सकती ही न थी। किसी तरह उसने उठाया। अपनी एक बढ़िया साड़ी मुझे ।