पृष्ठ:लालारुख़.djvu/११३

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& कृमि-कीट से भी अधम और घृणास्पद वेश्या होकर भी जो मैंने रानी का गौरवास्पद पद छीनना चाहा, उस धृष्टता का जो दण्ड मिलना उचित था, वह मुझे मिला। मैं जिस रूप पर इतराती थी और जिसकी सर्वत्र प्रशंसा थी, महाराजा भी जिसे देखकर थकते न थे, वह रूप अब निस्तेज हो गया। महाराजा पर उसका नशा नहीं होता, वे और नवीनाओं की खोज में लगे और मुझे अनुचरों के सुपुर्द कर दिया। हाय री लाञ्छना, वह सब बड़ी-बड़ी आशाएँ मृग- मरीचिका निकल गईं। जिन्हें कल मैं तुच्छ समझकर पीकदान उठवाती थी, वे महाराज के सङ्केत से मेरे शरीर और आत्मा के अधिकारी हो गए। जैसे पवित्र पाकशाला में विविध स्वादिष्ट खाद्य-पदार्थों से भरा हुआ थाल-महाराज के छक कर जीम चुकने पर जूठन भङ्गी को मिलती है, मेरी दशा भी उसी पत्तल के समान थी। महाराज के आदेश से उन्हीं के सम्मुख उनके विनोदार्थ मुझे उनके नीच पशु सब पार्श्वदों से जघन्य कुकर्म बिना उज़ कराना और महाराज के लिए आई हुई नवीनाओं के के बीच कुटनी का काम करना!" क्या किसी स्त्री का हृदय बिना फटे रह जाय ? परन्तु मेरा हृदय फट कर भी न फटा। मैंने वह सब किया, जो मुझे आदेश दिया गया। उस दिन महफिल में आनन्दी के रूप को देखकर महाराज मौर उनके कामुक कुत्ते उस पर लव हो गए।