पृष्ठ:लालारुख़.djvu/११४

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चतुरसेन की कहानियाँ और उस गरीब असहाय बालिका को उनके पास लाने का कार्य करना पड़ा मुझे ? इच्छा हुई कि अभी बिष खा लूँ ; फिर सोचा, क्या मेरे मर जाने पर आज कोई रोवेगा? इस रस-रङ्ग में जरा भी विघ्न पड़ेगा? आनन्दी को भी क्या कोई बच्चा सकेगा, यह तो सम्भव नहीं है। मैं उसे चुमकार-पुचकार कर ले गई। वही हुआ जो भय था, वह उस दिन से शय्या पर पड़ी है, उसके शरीर का बूंद-बूंद रक्त निकल गया, पर रक्त प्रवाह बन्द होता ही नहीं। डाक्टर कहते हैं कि वह बचेगी नहीं, उसे खाँसी और ज्वर भी हो गया है, और वह सूख कर काँटा हो गई है। मैं उसे देखने गई थी। क्या उसका हात वर्णन करूं ? वह अब उठ-वैठ भी नहीं सकतो, अमो उसकी आयु की बालिकाएँ कुमारी हैं और वह सभी कुछ भोग चुकी, सभा कुछ पा चुकी, साथ ही परलोक के सभी अधिकार खो चुकी। आज नहीं तो कल वह जायगी, उस सर्व-शक्तिमान पिता के पास, वह दयालु ईश्वर क्या अब भी उसे और दण्ड देगा! उसने पाप किया, पाप अपना जीवन बनाया, पाप में वह जी और मरी; पर पाप को उसने पाप समझा कब ? नारी-जीवन पाकर, नारी-शरीर, नारी के सभी गुण पाकर, वह बेचारी नारी-गरिमा से बिलकुल वञ्चित रही!! हाँ, मैं इस पर विचार करूंगी कि यह वेश्यावृत्ति क्या वस्तु है। और इसका दायित्व किस पर है, इसके नाश का क्या कोई उपाय नहीं है ? उन पुरुषों को धिक्कार है, जो त्रियों के रक्षक होकर भी स्त्री-जाति के इस कलङ्क को नाश करने का जरा भी उद्योग नहीं करते। आह ! आनन्दी, तेरी जैसी कितनी प्यार