पृष्ठ:लालारुख़.djvu/२६

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चतुरसेन की कहानियाँ केवल क्षण भर ही वह युवक उस अति दुर्लभ मुख के ओर देखने का साहस कर सका। उसने उठने की चेष्टा की, परन्तु मानो उसके शरीर का सत निकल गया था। वह गिर पड़ा, गिरे ही गिरे उसने जरा बढ़ कर अपना मस्तक शाहजादी के कदमों पर रख दिया। शाहजादी के जूतों में लगे हीरे युवक के मस्तक पर मुकुट की तरह दिप उठे। शाहज़ादी ने मानो फूल बखेर दिए। उसने कहा-कल के हादिसे का मुझे बहुत रञ्ज है, पर मैं समझती हूँ, अब तुम बहुत अच्छे हो । मैंने पालकी से तमाम माजरा देखा था, मगर कर क्या सकता था ? दादाजान से आते ही शिकायत कर दी था। युवक जरा ऊँचा उठ कर शाहज़ादी का आँचल आँखों से लगाया, और बारम्बार जनीन चूम कर कहा- हुजूर, खुदा- बन्द शाहजादी, कल अगर हुजूर की पालकी की खाक न नसाब होती तो आज यह दिन कहाँ ? जहाँपनाह ने इस नाचीज़ गुलाम को निहाल कर दिया है। ताबेदार ताउम्र इन कदमा का नमकहलाल रहेगा। शाहजादी कुछ न कह कर धीरे-धीरे चली गई, परन्तु उसके साँस की सुगन्ध वहाँ भर गई थी, और उसीके प्रभाव से युवक के घाव भर गए थे। वह उस स्थान को, जहाँ शाहजादा क कमल-पद छू गए थे, अपनी छाती से लगा कर बदहवास पड़ा रहा। वह भूर्ति चाहे क्षण भर ही वह देख सका था, पर वह उसके रोम-रोम में रम गई थी। पर दुनिया के पर्दे में कौन सा ऐसा कोई मर्द-बच्चा था, जो फिर उसे एक बार देख लेने का हौसला भी कर सकता ? .