पृष्ठ:लालारुख़.djvu/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चुकी थी १२ साल बीत गए । सन् ५७ की २४ वीं मई थी। गदर की आग धू-धू करके जल रही था। चिनगारियाँ आसमान को छू निकल्सन ने दिल्ली पर घेरा डाल रक्खा था। भाग्य की रेखा के बल पर बुड़े और लाचार बादशाह बहादुरशाह ने बागियों का साथ दिया था। क्षण-क्षण में बागा हार रहे थे। अगरेजी तोपें काशमीरी दरवाजे पर गरज रही थी। लाहौरी दरवाजा सर हो चुका था। फतहपुरी मस्जिद के सामने अङ्गरेजो घुड़सवार और बागियों की लाल होली खेली जा रही थी। लाशों के ढेर में से अधमरे सिपाही चिल्ला रहे थे। अङ्गरेज बराबर बढ़ते और जो मिलता उसे सङ्गीनों से छेदते चले आ रहे थे। कर्नल वाट्मन के हाथ में कमान । थी। इनके साथ थे एक सम्भ्रान्त मुसलमान अमीर जनाब इलाहीबख्श चे एक अरजी नझीस घोड़े पर पान चबाते, इत- राते बढ़ रहे थे, लोग देख-देख कर भयभीत होकर घरों में छिप रहे थे। यह इलाहीबख्श वही घायल युवक थे, जो अपनी जवाँमर्दी और चतुराई से १० वर्ष में बादशाह के अमीर और नगर के प्रतिष्ठिन तथा प्रभावशाली व्यक्ति बन गए थे। अगरेजों ने दमदार मुसलों को जहाँ तोपों और सङ्गीनों की नोक से वश में किया था, वहाँ कुछ नमकहराम, सङ्गदिल लोगों को अपनी भेद-नीति और सोने के टुकड़ों से वश में कर लिया था। ।