पृष्ठ:लालारुख़.djvu/३१

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बावर्चिन कालीन पर मसनद के सहारे इलाहीवख्श बैठे अम्बरी तमाम्बू पी रहे थे. दो-चार मुसाहिन्न सामने अदब से बैठे जी-हुजूरी कर रहे थे। मियाँ जी को मालूम होता है, बचपन के दिन भूल गए थे। वे बहुत बढ़िया अतलस के अंगरखे पर कमखाव की नीमास्तीन पहने थे। धीरे-धीरे अन्धकार के पर्दे को चीरती दुई एक मूर्ति अग्र- सर हुई। लोगों ने देखा, एक खा मूर्ति मैला और फटा हुआ बुक्का पहने आ रही है। लोगों ने राका, मगर उसने सुना नहीं। वह चुपचाप मियाँ इलाहीबख्श के सन्मुख आ खड़ी हुई। मियाँ ने पूछा-क्या चाहती हो ? "पनाह !, "कोन हो?" "आफत की मारी "अकेली हो?" "बिलकुल अकेली!" कुछ काम करना जानती हो?" "वावर्ची का काम सीख लिया है !" "तनखाह क्या लोगी ?" "एक टुकड़ा रोटी बहुत महीन, दर्द-भरी, कम्बित आवाज़ में इन जवानों को सुन कर मियाँ इलाहीबख्श साच में पड़ गए। थोड़ी देर बाद उन्होंने नौकर को बुला कर उस स्त्री को भीतर भिजवा दिया। उस दिन उसी को खाना बनाने का हुक्म हुआ। मियाँ इलाहीबख्श दस्तरखान पर बैठे। दोस्त अहबाबा का पूरा जमघट था। तब तक दिल्ली में बिजली तारों से २३