पृष्ठ:लालारुख़.djvu/३०

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चतुरसेन की कहानियाँ आज तीन दिन से खाना नसीब नहीं हुआ है। कुछ हो तो ले पात्रो चिश्ती साहब ने कहा-सिर्फ बाजरे की रोटी और सिके की चटनी है ! हुक्म हो तो हाजिर करूँ। "वही ले आओ।" बादशाह ने शान्तिपूर्वक एक रोटी खा और पानी पीकर कहा-बस, अब हुमायूँ के मकबरे मे चला जाऊँगा, वहाँ जो भाग्य में होगा वह होगा। हुमायूँ के मकबरे में हडसन और इलाहीबख्श ने आकर बाहाह को गिरफ्तार करके रंगून भेज दिया। ६ तीन वर्ष व्यतीत हो गए। दिल्ली में अगरेजी अमल जम कर बैठ गया था। लाल किले पर यूनियन जैक फहरा रहा था। फाँसियों की विभीषिकाओं ने नगर और ग्राम की जनता के मन में दहल उत्सन्न कर दी थी। दब्बू भेड़ की तरह चुपचाप अङ्गरेजों के विधान को अटल प्रारब्ध की तरह देख और सह रहे थे। इलाहीबख्श के पास बादशाही बख्शीश ही बहुत थी, अब अगरेजी जागीरों और मेहरबानियों ने उन्हें आधी दिल्ली का मालिक बना दिया था। सरकारी नीलामों में मुहल्ले के मुहल्ले उन्होंने कौड़ियों में पाए थे। उनकी बड़ी भारी अट्टालिका खड़ी मनुष्य के भाग्य पर हँस रही थी। सन्ध्या का समय था। अपनी हवेली के विशाल प्राङ्गण में तख्त के ऊपर बढ़िया ईरानी २२