पृष्ठ:लालारुख़.djvu/३९

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{ लाशा २ "तो जानेमन, अब तुम यहीं गए अब कहीं जाओगे तो "नहीं दिलवर, कभी नहीं, अब हम चाहे जब मिल सको।" "चाहे जब कैसे प्यारे ? अबा मुझे घर से बाहर आने देंगे तब तो "अब्बा क्या तुम्हें रोकते हैं ताज ?" "तुम नहीं जानते, कल वह शैतान खुर्रम यहाँ फौज लेकर आया है। बादशाह ने आगरे से उसे भेजा है, अब्बा की निग- रानी करने को "तो भाने दो उस शैतान को, प्यारी ! वह हमारा क्या बिगाड़ लेगा।" "क्यों नहीं, क्या तुमने नहीं सुना-उसकी नजर बहुत खराब है ?" "सच ! तुमसे किसने कहा ?" "कहता कौन, क्या मैं नहीं जानती कि ये आगरे के जर्क- वर्क शाहजादे कैसे पाजी होते हैं।" "तो क्या हर्ज है। नजर बैठ जाय शाहजादे की। हिन्दु- स्तान की मालिका बनोगी, इस गरीव की जोरू बन कर क्या मिलेगा ? "तुम तो मिलोगे, जो तमाम जहान की मिल्कियत से ज्यादा हो