पृष्ठ:लालारुख़.djvu/४०

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रंगा चतुरसेन की कहानियाँ "मगर कहाँ मकई की मोटी रोटियाँ, टूटी खाट, पुराना छप्पर और कहाँ रंगमहल, हीरा, मोती, नाच, "ओह यूसुफ, तुम बड़ा जुल्म करते हो। मैं खुशी से वह रोटियाँ खाऊँगी और एका-एका कर तुम्हें खिलाऊँगी। मैं उसकी आदी हूँ। तुम औरत का दिल नहीं जानते, इसी से हीरा, मोती का लालच दिखाते हो।" "तो इसमें आँखें क्यों भर लाई, प्यारी ताज, मैं तो हँसी कर रहा था।" "तुम्हारी हसी में मेरी जान जायगी।" "नहीं नहीं जानेमन, ऐसा न कहो।" "तो कहो तुम अध्या से अब कब मिलोगे ?, "वहुन जल्द । अँधेरा हो गया। चलो मैं पहुँचा आऊँ ।" "घर कोई देख लेगा?" "देखने वाले की आँखें जाय }" दोनों खिलखिला कर हँस पड़े। युवती अठारह साल की एक बाला थी। उसका हीरे के समान उज्वल शरीर साधारण बस्त्रों में ढक रहा था और युवक एक देहाती जमीदार सा मालूम पड़ता था। दोनों ने प्यार की नजरों से एक दूसरे को देखा। युवक धीरे-धीरे वस्ती की ओर चला, उसके साथ-साथ अपने सौरम और चपल गति से प्रानन्द बखेरती हुई युवती भी चली। राह बाट में अँधेरा छा रहा था। ३ अँधेरे के सन्नाटे में कुछ आदमी सतर्कता से बातचीत कर रहे थे। उनमें एक भद्र पुरुप था जिसकी लम्बी सफेद डाढ़ी