पृष्ठ:लालारुख़.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुरसेन की कहानियाँ मैं उसमें डूब जाऊँ, फिर जो जी में आवे, वह तुम करना । इस मुगल तख्त और उसके मालिक की मालिक तुम हो !" "जहाँपनाह को आदाब हो, जलाल मुल्ला ने जो में बगावत का झण्डा उठाया है, उसके लिए क्या हुक्म है ? मेरा ख्याल है, जहाँपनाह को खुद चलना चाहिए।" "अच्छी बात है, तैयारी कर लो। अब लाओ एक प्याला, और एक तान सुना दो, जिससे तबियत हरी हो जाय !" लाहौर से कुछ इधर शाही छावनी पड़ी थी। बादशाह एक गावकिए के सहारे लेटे थे। नूरजहाँ शराब की सुराही आगे घरे जाम भर-भरकर बादशाह को देती, प्रत्येक बार कहत्ती- "बस, अब नहीं। बादशाह हाथापाई करके कहते-"एक- बस एक और आसफउद्दौला ने तंबू में प्रविष्ट होकर कहा-"महावतखाँ खुद आए हैं, और जहाँपनाह की कदमबासी किया चाहते हैं। नूरजहाँ ने कहा-"मुलाकात न होगी। कह दो।" बादशह चौंक रठे। उन्होंने कहा-"यह क्यों नूर, वह सिर्फ मिलना चाहते हैं।" "कुछ जरूरत नहीं है जहाँपनाह, उसे अभी इसी बक्त पंजाब को रवाना हो जाना चाहिए।" आसफ ने बादशाह की ओर देखकर कहा-"क्या जहाँ पनाह का यही हुक्म है ?" "हाँ, यही हुक्म है।"