पृष्ठ:लालारुख़.djvu/७३

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दे खुदा की राह पर वह मन ही मत आशीर्वाद देता हो। बहुधा मैंने देखा था, नोग चुपके से उसके निकट जाते, पैसा उसका टोपी में फेंकते और धीरे से खिसक जाते थे। वह तो अपनी अनबरत गति से 'दे खुदा की राह पर' को आवाज थोड़ी-थोड़ी देर बाद लगाता रहता था। घर से दफ्तर जाने का मेरा रास्ता जामे मस्जिद होकर ही था। जामे मस्जिद से मैं ट्राम एकड़ता था! प्रतीक्षा में कमी-कभी मुझे कुछ देर अटकना पड़ता था। वह सीढ़ियों के जिस नुक्कड़ पर बैठता था, वहाँ मैं ट्राम की प्रतीक्षा में खड़ा रहता था। उस समय ट्राम आने तक मैं उसके एक रस और एक-सी भावभंगी से परिपूर्ण चेहरे को, आते-जाते तथा पैसा देनेवालों को और उनकी पोशाक भावना को ध्यान से देखता रहता था। मुझे इसका कुछ चार-सा हो गया था। मैंने उसे कभी कुछ नहीं दिया । एक पैसा देते हुए मुझे शर्म लगती थी। अधिक देते भी शर्म लगती थी। सभी तो पैसा देते थे, मेरा अधिक देना दंभ में सम्मिलित था। फिर, मेरी प्राम- दनी भी इतनी संक्षिप्त थी कि मैं अधिक दे नहीं सकता था। और यह तो रोज का धंधा ठहरा। २ वर्षा के दिन थे। दिन भर पानी बरसा था। दफ्तर जाती बार देखा, वह एक कोने में खड़ा भीग रहा है। उस दिन उसे इस प्रकार निरीह भाव से भीगता देखकर मन पर आधात लगा। जी में ऐसा हुआ कि इसके लिए कुछ तो करना ही चाहिए। दफ्तर से जब मैं लौटा, तब वह अपने स्थान पर बैठा ५