पृष्ठ:लालारुख़.djvu/७५

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दे खुदा की राह पर वृद्ध को इस बात का कोई ज्ञान न था कि मैं उसका पीला कर रहा हूँ। वे दोनों भीतर चले गए। दरवाजा बंद हो गया। मैं फिर भी खड़ा कुछ सोचता रहा। यह अंधा, बूढ़ा भिखारी कौन है, और इसके साथ यह अनिंद्य सुन्दरी बाला कौन है। मेरी दृष्ट बंद द्वार पर थी! द्वार चुला, वे ही श्रास्त्रे एक बार दोलायमान होकर मेरे मुख पर अटक गई। मैं चमत्कृत होकर देखने लगा। उसने सति से मुझे निकट बुलाया, और कहा "आप बाबा से कुछ कहा चाहते हैं ?" मैंने बिना सोचे ही जवाब दिया-"हाँ मैं उनसे कुछ बात किया चाहता हूँ। "आप आइए।" व पाछे हट गई। मैं भीतर चला गया। मेरे भीतर आने पर उसने द्वार बन्द कर लिया। भीतर से घर काफी बड़ा था। मक नियत तो कुछ न थी, मैदान काफी था । उसमें एक नीम का पेड़ भी था। घर हर तरह सक था। वृद्ध शकीर एक चटाई पर चुपचाप बैठा था। बालिका ने कहा- "बाबा, यह पाए हैं।" बूढ़े ने दोनों हाथ फैला कर कहा--"अाइए मेरे मेहरबान, मुझसे रजिया ने कहा कि आप मेरे पीछे-पीछे आ रहे थे, और दरवाजे पर खड़े थे। कहिए, मैं आपकी क्या खिदमत बजा ला सकता हूँ। बैठिए" बालिका ने एक चटाई का टुकड़ा लाकर डाल दिया था। मैं उसी पर बैठ गया। मैंने कहा है-"मैंने इस तरह आकर आपको जो तकलीफ दी, उसके लिए माफी चाहता हूँ। दर- असल मेरा कोई काम नहीं है। मगर मैं आपको असे से जामे- ।