पृष्ठ:लालारुख़.djvu/७६

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। चतुरसेन की कहानियाँ मस्जिद पर देखता हूँ। मैंने आपको कभी कुछ नहीं दिया। लेकिन आज उठती बार आपके मुँह से यह सुनकर कि आज कुछ भी नहीं, मैं अपने को काबू में न रख सका। एक पैसा आप जैसे संजीदा बुजुर्ग के हाथ में रखते शर्म आती थी ज्यादा की औकात नहीं। पर आज तो इरादा ही कर लिया, भगर हिम्मत न हुई कि आपको आवाज दूं। यही सोचते यहाँ तक चला आया। बूढ़े ने सन्तोष से सारी बातें सुनी! फिर उसने आकाश की ओर अपने दृष्टिविहीन नेत्र फैलाकर कहा-"शुक्र है अल्लाह का। दुनियाँ में आप जैसे भी फरिश्ता खसलत इंसान हैं। खुदा आपको बरकत दे। आप शायद हिन्दू हैं।" "जी हाँ! मैंने धीरे से कहा, और एक रुपया निकालकर बूढ़े के हाथ पर रख दिया। रुपया हाथ से छूकर बूढ़े ने कहा-"खुदा आपको खुश रक्खे, मगर मैं अपने घर पर भीख नहीं लेता, खुदा के घर के क़दमों पर बैठकर ही मैं भीख लेने की जुर्रत कर सकता हूँ, वह भी खुदा की राह पर । यहाँ तो मेरा फर्ज है कि मैं आपकी, जहाँ तक हो, मिहमान नमाज़ी करूँ" यह कह कर बूढ़े ने रुपया वापस मेरी तरफ सरका दिया। इसके बाद जिया को पुकार कर कहा-"बेटी, इन मिहरबान की कुछ तवाजा तो जरूर करनी चाहिए। यह हिन्दू हैं, और कुछ तो न खायेंगे, इलायची घर में हों, तो जरा ला दो बेटी" रजिया दो इलायची ले आई। वह घुटनों के बल मेरे सामने बैठ गई । उसने अपनी सुनहरी हथेली मेरे सामने फैला